Last Updated on 6 months by Sandip wankhade
4 जनवरी “विश्व ब्रेलदिवस“, नेत्रहीन लोगों के जीवन में रंग भरने वाला दिन। इसी दिन ब्रेल लिपि के जनक लुइस ब्रेल का जन्म हुआ था।
आइए जानते है ब्रेल लिपि का आविष्कार करने वाले इस महान शख्स के बारे में। जो नेत्रहीन लोगों का मसीहा बना।
सन् 4 जनवरी साल 1809 को ब्रेल लिपि के आविष्कारक लुइस ब्रेल का जन्म हुआ।
लुइस ब्रेल फ्रांस के एक छोटे से कुप्रे ग्राम के रहीवासी थे। उनका यह गाव फ्रांस की राजधानी से महज कुछ ही दूरी पर स्थित है। उनके परिवार में उनके माता पिता और उनको मिलाकर चार भाई बहन है। लुइस के माता का नाम मोनिक ब्रेल और पिता का नाम साइमन रेले ब्रेल है। लुइस ब्रेल परिवार में सबसे छोटे थे। जिसके कारण वे अपने माता पिता के काफी लाडले थे।
लुइस ब्रेल के घर की आर्थिक स्थिति कुछ खास नहीं थी। उनके पिता साइमन रेले ब्रेल जो घोड़ो की काठी और जिन बनाने में एक्सपर्ट होने से, उनका घोड़ो के जिन और काठी बनाने का खुद का ही कारखाना था। लुइस ब्रेल अक्सर यहा खेलने जाया करते थे और अपने पिता को उनके काम मे मदत किया करते थे।
कहा जाता है कि, लुइस ब्रेल के घर के आर्थिक हालात ठीक ना होने के कारण उनको महज तीन साल के उम्र में ही अपने पिता के ही वर्क शॉप में करना पड़ा था।
एक दिन वर्क शॉप में काम करते वक्त एक नुकीला अवजार उनके हाथ से उछलकर उनके एक आँख मे जा लगा। आँख को गहरा लग जाने के कारण उनकी आँख से खून की धारा बहने लगी। घर की आर्थिक स्थिति ठीक ना होने के कारण लुइस के माता पिता ने उनका इलाज घर पर ही किया। जड़ी बूटी का इस्तेमाल करके उनके आँख की मलम पट्टी की गई।
प्रॉपर इलाज ना करने के कारण लुइस के आँख में इफेक्शन हो गया। जिसके चलते उनके आँख की रोशनी चली गई और वे एक आँख से अंधे हो गए। धीरे धीरे समय बीतता गया और उनके एक आँख का इफेक्शन फैलकर दूसरे आँख तक भी जा पहुँच गया और वे आठ साल की उम्र तक आते आते अपने दोनों आँख गवा बैठे। लुइस ब्रेल महज आठ साल की उम्र में ही दोनों आँखों से अंधे हो गए थे। उनकी रंग बेरंगी दुनिया कुछ ही समय में अंधेरे में तब्दील हो गई थी।
इस हादसे से लुइस ब्रेल के माता पिता उनको लेकर काफी चिंतित रहने लगे थे। लेकिन लुइस ब्रेल अपनी इस अंधेर भरी दुनिया में जल्द ही रमने लग गए थे।
लुइस ब्रेल मे किसी भी चीज के बारे में जानने की गजब की महत्वाकांक्षा थी। किसी भी चीज के बारे में जानने के उनके रुचि के कारण उनके माता पिता उन्हें पढ़ाना चाहते थे। लुइस के पढाई के लिए उनके पिता फ्रांस के प्रसिद्ध पादरी “बैलेंटाइन” से मिले। अपने बेटे को पेरिस के प्रसिद्ध अंधविद्यालय मे प्रवेश दिलाने के लिए लुइस ब्रेल के पिता ने पादरी बैलेंटाइन से विनंती की। लुइस के पिता की उनके प्रति धड़पड को देखकर, पादरी बैलेंटाइन ने भी लुइस के लिए प्रयास किए। आखिरकार पादरी बैलेंटाइन के प्रयासों के चलते लुइस ब्रेल को साल 1819 मे फ्रांस के जानेमाने प्रसिद्ध शिक्षण संस्थान “रॉयल नेशनल इंस्टिट्यूट फॉर ब्लाइंड चिल्ड्रेन” मे प्रवेश मिला।
“रॉयल नेशनल इंस्टिट्यूट फॉर ब्लाइंड चिल्ड्रेन” यह फ्रांस की प्रसिद्ध शिक्षण संस्था थी। जो दृष्टिहीन बच्चों के लिए बनाई गई थी। इस शिक्षण संस्था मे “वेलन्टिन होऊ” द्वारा निर्मित लिपि का यूज करके विद्यार्थीयों को पढ़ाया जाता था। पर कहा जाता है कि, यह लिपि अधूरी बनी हुई थी।
कम उम्र में ही लुइस ब्रेल ने इस शिक्षण संस्थान में विभिन्न विषयों का अभ्यास किया। उनके पढ़ने की रुचि देखकर इस शिक्षण संस्थान के सारे लोग उनसे काफी प्रभावित हो गए थे।
साल 1821 मे लुइस ब्रेल बारह वर्ष के हो गए। इसी दरम्यान लुइस ब्रेल को पता चलता है कि, सेना के एक अधिकारी है। जो हाल ही मे रिटायर हुए है। इनके बारे में लुइस ब्रेल को पता चलता है कि, इन्होंने सेना के जवानों के लिए एक ऐसे लिपि का आविष्कार किया है। जिसको अंधेरे में भी आसानी से पढ़ा जा सकता है। अपनी जिज्ञासा के कारण लुइस ब्रेल इस लिपि के बारे में और जानना चाहते थे।
इस लिपि के बारे में अधिक जानकारी पाने हेतु, लुइस ब्रेल उस रिटायर अफसर से भेट करना चाहते थे। उनकी भेट करने के लिए लुइस ब्रेल अपने उस पादरी से मुलाकात करते है। जिन्होंने उनको इस शिक्षण संस्थान में दाखिला दिलाने के लिए प्रयास किया था।
पादरी बैलेंटाइन से मिलकर उन्हे अपनी जिज्ञासा के बारे में बताते है और उस अफसर के बारे में पूछते है जिन्होंने उस लिपि का निर्माण किया है।
पादरी बैलेंटाइन से भेट करने के बाद लुइस ब्रेल को पता चलता है कि, उस रिटायर अफसर का नाम चार्ल्स बार्बर है। जो शाही सेना मे कैप्टेन पद पर रह चुके है।
लुइस ब्रेल, पादरी बैलेंटाइन से कहते है कि, वह उस अधिकारी से मिलना चाहते है। ताकि उस लिपि के बारे वे अधिक से अधिक जान सके। ऐसा कहा जाता है कि, बाद में पादरी बैलेंटाइन ने उन दोनों की मुलाकात करवाई थी।
मुलाकात के दौरान कैप्टेन चार्ल्स बार्बर अपने द्वारा विकसित उस लिपि के बारे में लुइस को बताते है।
कैप्टेन चार्ल्स बार्बर द्वारा निर्मित लिपि भी ब्रेल लिपि की तरह ही एक उभरी हुई लिपि थी। पर इस लिपि में कैप्टेन चार्ल्स बार्बर ने बारह बिंदुओं का इस्तेमाल किया था। इन बारह बिंदुओं को 6-6 की दो पंक्तियों में विभाजित किया हुआ था। कहा जाता है कि, चार्ल्स बार्बर द्वारा निर्मित इस लिपि में विराम चिन्ह, संख्या और गणित में इस्तेमाल किए जाने वाले चिन्हों का अभाव था। पर इसकी खास बात यह थी कि, इसे अंधेरे में भी बिना देखे, छुकर पढ़ा जा सकता था।
इस लिपि के बारे में चार्ल्स बार्बर से जानने के बाद, लुइस को एक प्रेरणा मिली। वह प्रेरणा थी, दृष्टिहीन लोगों के लिए एक ऐसे ही लिपि का निर्माण करना। जिसे छुकर, महसूस करके पढ़ा जा सके।
आख़िरकार लुइस ब्रेल ने एक लिपि का आविष्कार किया। जो हाथ से छूकर और महसूस करके पढ़ी जा सकती थी। इस प्रकार की लिपि का निर्माण करने मे लुइस ब्रेल को लगभग आठ वर्ष का समय लगा। अपने अथक परिश्रम से लुइस ब्रेल ने अपनी एक लिपि बनाई। जिसे आज हम “ब्रेल लिपि” के नाम से जानते है। यह लिपि सन् 1829 मे पूर्ण रूप से विकसित होकर लोगो के सामने आई।
लुइस ब्रेल ने इस लिपि को काफी सरल बनाया। इस लिपि में बारह बिंदु की जगह केवल छह बिंदुओं का इस्तेमाल किया गया। ताकि इसे समझने में आसानी हो। ज्यादा कठिनाई ना हो। इन छह बिंदुओं का इस्तेमाल करके लुइस ब्रेल ने 64 अक्षरों का और चिन्हों का निर्माण किया। इन बिंदुओं के उपयोग से लुइस ब्रेल ने ना केवल गणित में इस्तेमाल किए जाने वाले चिन्हों का निर्माण किया। बल्कि संगीत के नोटेशन भी बनाए।

ब्रेल लिपी (Braille)
इस लिपि का निर्माण करने के बाद भी लुइस ब्रेल को और भी कई परेशानीयों का सामना करना पड़ा। इन परेशानीयों मे प्रमुख परेशानी थी इस लिपि को मान्यता दिलाने की। ऐसा कहा जाता है कि, इस लिपि को मान्यता देने के लिए उनके समकालीन कई शिक्षाशास्त्रियों ने मना किया। ना सिर्फ इन शिक्षाशास्त्रियों ने लिपि को मान्यता देने से मना किया बल्कि उन्होंने लुइस ब्रेल का मजाक भी उडाया।
यह लिपि कैप्टेन चार्ल्स बार्बर की लिपि से प्रेरित होने के कारण लुइस ब्रेल से जलने वाले लोग इस लिपि का श्रेय लुइस ब्रेल को देने की बजाए, कैप्टेन चार्ल्स बार्बर को दिया करते थे। ऐसा माना जाता है कि, इस लिपि पर कैप्टेन चार्ल्स बार्बर के नाम का साया लगातार मंडराता रहता था।
लेकिन ऐसे कठिन परिस्थिती मे भी लुइस ब्रेल ने हार नहीं मानी। अपने लिपि को मान्यता दिलाने के लिए उनके प्रयास लगातार चलते रहे। इस लिपि का प्रसार प्रचार करने मे, उनकी मदत करने के लिए एक बार फिर पादरी बैलेंटाइन आगे आए और इन्होंने भी अपनी तरफ से लुइस की सहायता की।
लिपि को मान्यता प्रदान करने के लिए लुइस ब्रेल ने सरकार से भी प्रार्थना की। लेकिन शिक्षाशास्त्रियों के विरोध के चलते इस लिपि को सरकार से स्वीकृति नही मिल पाई। शायद यह लुइस ब्रेल के जीवन का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण समय रहा होगा।
आखिरकार संघर्षशील रहे लुइस ब्रेल अपने लिपि को मान्यता दिलाने के जंग के साथ साथ अपने जीवन की भी जंग हार गए। सन् 6 जनवरी साल 1852 को टीबी के बीमारी के चलते महज 43 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। एक महान शख्स ने इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया।
लुइस ब्रेल के मृत्यु के बाद भी उनके लिपि का प्रचार प्रसार लगातार होता रहा। नेत्रहीन लोगों का इस लिपि को गजब का प्रेम मिला। जिस तरह से लुइस ब्रेल के लिपि नेत्रहीन लोगों मे लोकप्रिय हो रही थी। इस लिपि के लोकप्रियता के कारण इसे मान्यता प्रदान करने के लिए फ्रांस के सरकारों सहित शिक्षाशास्त्रियों द्वारा गंभीरतापूर्वक सोचा जाने लगा। आखिरकार अपने द्वारा हुए भूल को स्वीकार करके, लुइस ब्रेल के लिपि को मान्यता दी गई।
अपने द्वारा हुए गलती का प्रायचित करने के लिए और लुइस ब्रेल से माफी मांगने के लिए अंतिमत: 100 वर्षों बाद फ्रांस ने उनका सम्मान करने के लिए एक सरकारी कार्यक्रम का आयोजन किया।
लुइस ब्रेल के देहांत के 100 वर्षों बाद सन् 20 जून 1952 को, फ्रांस ने लुइस ब्रेल की याद मे, उनकाे सम्मान देने के लिए सम्मान दिवस का आयोजन किया था।
इस दिन सरकार ने उनके गाव कुप्रे जाकर उनके कब्र को खोला और उनके पार्थिव शरीर को बाहर निकाला। जिन जिन सेना के अधिकारियों ने, राजनेताओं ने और शिक्षाशास्त्रियों ने लुइस ब्रेल का अपमान किया, उनको तंग किया, उनका मजाक उडाया। इन सभी के वंशजों ने लुइस ब्रेल के कब्र के पास आकर उनके पार्थिव शरीर से अपने पूर्वजों द्वारा किए गए छल के प्रति माफी मांगी।फ्रांस की सेना ने उनके प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए सेना की शोक धुन को बजाया। इस शोक धुन के साथ ही लुइस ब्रेल के पार्थिव शरीर के अवशेषों को पूरे सम्मान के साथ फ्रांस के राष्ट्रीय ध्वज मे लपेटा गया और पुन्हा उनको पूरे सम्मान के साथ दुबारा दफनाया गया।
कहा जाता है कि, जिस तरह से उनके प्रति फ्रांस ने सम्मान प्रकट किया उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता था, जैसे वे दुबारा जीवित हो उठे हो।
लेकिन फिर भी जो सम्मान उन्हे जीवित रहते वक्त मिलना चाहिए था। वह उनको नही मिल पाया।
लुइस ब्रेल ने जो कार्य किया वह किसी एक राष्ट्र के लिए ना होकर पूरे विश्व के लिए किया गया कार्य था। मानव जाती के उद्धार के लिए किया गया कार्य था। इसलिए पूरे विश्व की यह जिम्मेदारी बनती है कि, उनका सम्मान करे। उनकी याद मे कुछ किया जाए।
इसी कारणवश भारत सरकार ने भी उनके प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए, एक डाक टिकट का अनावरण किया। यह डाक टिकट उनके जयंती को 200 वर्ष पूरे होने के अवसर पर 4 जनवरी 2009 को जारी किया गया था।
संयुक्त राष्ट्रसंघ ने भी अपनी महासभा में 4 जनवरी 2019 से लुइस ब्रेल का सम्मान करने के लिए उनके जन्मदिन (4 जनवरी) को विश्व ब्रेल दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की।
यह पहली बार नही है। ऐसे महान लोगो का अनादर दुनिया ने ना किया हो। पूरे विश्व के लिए ऐसे महान कार्य करने के बाद भी हम कई बार ऐसे महानतम् व्यक्तियों को उनके जीवित रहते हुए, उनका उचित सम्मान नही कर सके। यह गलती हम बार बार दोहराते रहे है। हमें ऐसी गलतियों से बचना चाहिए।
दुनिया भलेही अब लुइस ब्रेल के प्रति सम्मान व्यक्त कर रही हो। लेकिन कोई फायदा नही है। क्युकी इस सम्मान को देखने वाला इंसान अब इस दुनिया को पहले ही अलविदा कह चुका है।