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टंट्या भील एक ऐसे क्रांतिकारी हुए जिन्होंने ना सिर्फ अंग्रेजों को बल्कि अंग्रेजों की गुलामी करने वाले रियासतदारो, सेठ और साहूकारों तक को अंदर से हिला कर रख दिया। ऐसे भारत के इस रोबिन्हुड को सलामी दिये बिना आगे नहीं बढ़ती है ट्रेने।

टंट्या भील एक ऐसे क्रांतिकारी हुए जिन्होंने ना सिर्फ अंग्रेजों को बल्कि अंग्रेजों की गुलामी करने वाले रियासतदारो, सेठ और साहूकारों तक को अंदर से हिला कर रखने वाले भारत के इस रोबिन्हुड को सलामी दिये बिना आगे नहीं बढ़ती है ट्रेने।
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Last Updated on 9 months by Sandip wankhade

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में आदिवासी जनजातियों के बहुत से वीर सपूतों का भी योगदान रहा है। लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि, मौजूदा व्यवस्था ने आदिवासी समुदाय के उन वीरों को भारत के इतिहास में वह स्थान नही दिया, जिसके वे हकदार थे।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में आदिवासी जनजातियों के वीरता, बलिदान और अतुलनीय कार्य का भी अहम योगदान रहा है। भारत के व्यवस्था ने जब सेठ साहूकार, राजपूत और मुग़लों से लेकर अंग्रेजों की शान तक मे जो कसीदे पढे, तब भारत के कुछ आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासीयो के कुछ नायकों ने सेठ, साहूकारों, अंग्रेजों, और अंग्रेजों की गुलामी करने वाले राजे, महाराजो के नाक में दम कर रखा था।

1818 तक जब देश के सभी राजा महाराजाओ ने अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार कर ली थी, तब भी कुछ आदिवासी नायक मरते दम तक अंग्रेजों से लोहा लेते रहे। अपनी शान और संस्कृति के लिए लड़ते रहे थे। आज इस लेख में हम ऐसे ही एक आदिवासी नायक “टंट्या भील” उर्फ “टंट्या मामा” के वीरता के बारे में जानेंगे।

Table of Contents

टंट्या मामा का जन्म:-

क्रांतिकारी “टंट्या मामा भील” का जन्म मध्यप्रदेश के सातपुडा पर्वतों में बसे खंडवा जिले के एक छोटेसे गाव “बडौत अहीर” में हुआ था। टंट्या मामा भील के जन्म तिथी को लेकर लेखकों में कई सारे मतभेद नजर आते है। क्युकी उनके जन्म तिथी के बारे में कोई भी रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है। लेखक उनके जन्म के बारे में अपना अलग अलग मत रखते है। इसलिए उनके जन्म तिथी का सही से आकलन करना मुश्किल है। लेकिन लेखकों की माने तो उनका जन्म 1840 से 1842 के बीच का मानते है।

टंट्या मामा भील का बचपन:-

भील कोइतुर जनजाति के समान्य परिवार में जन्मे टंट्या मामा भील का बचपन भी बाकी बच्चों की तरह ही समान्य था। गरीब परिवार की जो मुश्किलें होतीं हैं। वही मुश्किलें उनके परिवार के और उनके सामने भी थी। टंट्या मामा भील का बचपन बाकी बच्चों की तरह ही समान्य था। वे भी बाकी बच्चों की तरह ही खेलकूद किया करते थे। जैसे तीर कमान चलाना, शिकार करना, गुलेल चलाना, कुस्ती खेलना, तलवार चलाना, तैराकी करना आदि। बाकी आदिवासी बच्चों की तरह ही उनकी भी कोई अधिकारिक शिक्षा नही हुई थी। लेकिन एक समान्य बच्चे से एक महान क्रांतिकारी बनने का उनका सफर काफी रोमांचक भरा रहा है। जो वर्तमान में सभी के लिए एक प्रेरणा देता है।

अत्याचार से मिली प्रेरणा:-

आजादी के पहले अंग्रेजों के अत्याचार और आजादी के बाद मौजूदा व्यवस्था के अत्याचार, दलितों की तरह ही जुल्म हमेशा से ही सहता रहा है। कहा जाता है कि, भील कोइतुर जनजाति का जीवन भी बाकी देशवासीयों की तरह उस समय अंग्रेजों, होल्कर मराठाओं और सावकारों के बीच पीस रहा था।

1818 के बाद होल्कर मराठा भी अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार कर चुका था और अपना जीवन एशो आराम से गुजार रहा था। अंग्रेजों की तरह ही होल्कर मराठा और सेठ साहूकार भिल कोइतुर जनजाति से भारी लगान वसूल किया करते थे। उनके जल, जंगल और जमीन को जबरदस्ती हड़प लेते थे। जिसके कारण भील कोइतुर जनजाति का जीवन और भी दुःखों से भर रहा था।

इन सभी जुल्मो का शिकार टंट्या मामा भील का परिवार भी शिकार हुआ था। अपने परिवार, रिश्तेदारों और समाज का हो रहा शोषण देखकर, एक समान्य सा दिखने वाला बालक काफी दुःखी रहने लगा था। इन सभी जुल्मो के बीच पला और बढ़ा टंट्या भील युवा होने के बाद, अंग्रेजों, होल्कर मराठाओं और सेठ साहूकारों से काफी नफरत करने लगा। इन सभी के जुल्म अत्याचार से पीड़ित टंट्या भील ने अपने और अपने समाज पर हो रहे अत्याचारों का बदला लेने की ठानी। इसी जुल्म और अत्याचारों ने एक समान्य दिखने वाले टंट्या भील को आगे चलकर देश का रोबिन्हुड बनाया।

आदिवासीयो के विद्रोह से हिम्मत मिली:-

जिस प्रकार से टंट्या मामा भील ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने का सोचा उस समय उन्हे यह जानकारी मिली कि, उन्ही के जैसे और भी कुछ क्रांतिकारी है। जो अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहे है। टंट्या मामा भील को यह जानकारी मिली कि, भारत के कई सारे आदिवासी आदिवासी क्षेत्रों में उरांव, मुंडा, संथाल, गोंड द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया जा रहा है। इस प्राप्त जानकारी से टंट्या भील काफी प्रभावित हुए। उन्हे लगने लगा था कि, इस लढाई मे वे अकेले नही है। इस जानकारी से उन्हे अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाने मे काफी बल मिला।

विद्रोही गुट का निर्माण:-

अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाने मे उनका हौसला बढ़ने के बाद उन्होंने बाकी नौजवानों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल किया।

कहा जाता है कि, टंट्या भील मामा अपनी बात रखने मे काफी पारंगत थे। उन्होंने अपने मन में चल रहे अंग्रेजों के खिलाफ के विद्रोह को अपने करीबी दोस्तों के साथ साझा किया। उन्होंने उनके दोस्तों को उनके साथ होने वाले अन्याय का अहसास दिलाया और उन्हे उनके अभियान में जुड़ कर अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा होने का न्यौता दिया। टंट्या भील की बातों से प्रभावित होकर उनके दोस्तो ने भी उनके अभियान में उनका साथ देने का वादा किया और वे भी अब अंग्रेजों से उनके साथ हुए अन्याय का बदला लेने के लिए उठ खड़े हुए। टंट्या भील के इस अभियान में उनका साथ देने के लिए सबसे पहले उनके करीबी दोस्त आगे आये, जिनका नाम महादेव, काल बाबा, भीमा नायक आदि था। बाद में कई सारे नौजवान उनके अभियान के साथ जुड़ते चले गए।

शुरुआत में टंट्या भील को सभी ने नजर अंदाज किया:-

अपने नेतृत्व में गुट का गठन होने के बाद, उन्होंने अंग्रेजों, होल्कर मराठाओं और सेठ साहूकारों के खिलाफ अपना मोर्चा खोला। शुरुआती दौर में अंग्रेज, होल्कर मराठा और सभी सेठ साहूकार उन्हे ज्यादा महत्व नही देते थे। हर कोई उन्हे शुरुआत में हल्के में लेने लगा था। कोई भी उन्हे अपने लिए कोई बड़ी परेशानी नहीं समझता था। एक समान्य घर के आवारा लड़के समझ कर उन्हे नजर अंदाज किया गया।

टंट्या भील

Photo credit:- Indiamart.com

नजर अंदाज करना अंग्रेजों को भारी पड़ा:-

टंट्या भील और उनके साथियों को समान्य घर के लड़के समझ कर नजर अंदाज करना बाद में सभी को भारी पड़ा। क्युकी जैसे जैसे टंट्या भील और उनके साथीयों ने अंग्रेजों, रियासतदारों, सेठ साहुकारों के खजाने की लूटमार की, वैसे वैसे इन सभी की परेशानी बढ़ती गई। अब सभी टंट्या भील और उनके साथियों को गिरफ्त मे लेना चाहते थे। उसके लिए उन्होंने कई सारे प्रयास किए। लेकिन टंट्या भील हर बार बचके निकले।

उनके बचकर निकलने के पीछे कई सारी वजह थी।

1) पहली वजह:-

टंट्या भील अपना भेष बदलने में काफी माहिर थे। उनके बारे में कहा जाता है कि, वे अपना भेष इस प्रकार से बदल लेते थे कि, उनके अपने भी कई बार उनको पहचानने में धोखा खा जाते थे। वे अपने साथ अपने कई सारे हमशक्ल रखते थे। जिससे अंग्रेज उन्हे पकड़ने में कई बार धोखा खा जाते थे।

2) दूसरी वजह:-

टंट्या भील गोरिला युद्ध निती मे गजब के पारंगत थे। छुप कर वार करने मे उनका कोई तोड़ नही था। वे अचानक से अंग्रेजों पर वार करके उन्हे लुटकर जंगलो मे छिप जाते थे। जिसके बाद उन्हे खोजना बिलकुल नामुंकिन था।

3) तीसरी वजह:-

टंट्या मामा भील के बारे में एक और रोचक जानकारी ऐसी भी मिलती है कि, उन्होंने एक बार अंग्रेजों के हथियारों की भी लूट की थी। वैसे तो वे तिर कमान चलाने मे काफी माहिर थे और वे तिर कमान का ही इस्तेमाल करके अंग्रेजों को लूटते थे। लेकिन 18 वी सदी में जहा दुनिया बंदूकों का इस्तेमाल कर रही थी तब टंट्या मामा भील और उनके साथी तिर कमान का इस्तेमाल कर रहे थे। जब उन्हे लगा कि, बंदूकधारी अंग्रेजों का सामना अब तिर कमान से नही होने वाला है। तो उन्होंने एक बार अंग्रेजों के हथियारों की ही लूट की और तिर कमान की तरह ही बंदूक चलाने मे भी महारत हासिल की।

4) चौथी वजह:-

टंट्या भील के लूट की एक और रोचक जानकारी यह मिलती है कि, वे कभी भी एक जगह पर लूट नही करते थे। उन्हे जब लूट करना होता था तब वे एक साथ पांच छह स्थानों पर एक ही समय पर लूट को अंजाम देते थे। जिसके कारण उनके लूट की एक साथ कई सारी खबरे पुलिस स्टेशन पर जाती थी। जिससे अंग्रेज पुलिस भ्रमित हो जाती थी कि, किस स्थान पर टंट्या भील ने लूट की है। इस प्रकार से टंट्या भील अपने लूट को अंजाम देते थे और पुलिस की गिरफ्त से भी बच निकल जाते थे। इस प्रकार की कई सारी वजह थी।

जैसे जैसे अंग्रेजों से, होल्कर मराठाओं से और सेठ साहूकारों से लोहा लेते गए, वैसे वैसे टंट्या भील और उनके साथियों को आदिवासीयो का जन समर्थन दिन प्रति दिन बढ़ता गया। लोग अब उन्हे अपना संकट मोचक समझने लगे। टंट्या भील आगे इतने लोकप्रिय बन गए थे कि, वे आदिवासीयो के मसीहा बनकर उभरे।

टंट्या मामा के नाम से लोकप्रिय:-

अंग्रेजों और उनकी गुलामी करने वाले रियासातों और अंग्रेजों के सामने हुजरे गिरी करने वाले सेठ,साहूकार और जमींदार जो जनता से उनकी गाढ़ी कमाई लगान के रूप में जबरदस्ती वसूल किया करते थे। लगान के रूप में वसूल किए इस पूरे खजाने की लूट टंट्या भील उनके साथियों को लेकर किया करते थे। इस लूट से प्राप्त खजाने का इस्तेमाल वे अपने स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि गरीब जनता के लिए किया करते थे। वे लूट मे मिले सारे खजाने को जनता के बीच में बाट देते थे।

मामा टंट्या भील के बारे में ऐसा भी कहा जाता है कि, टंट्या भील इस बात का खास तौर पर ध्यान रखते थे कि, किसी भी गरीब का परिवार भूखा ना रहे और ना ही किसी गरीब के बेटी की शादी पैसों के कमी के कारण रुके। टंट्या मामा गरीबों के बेटियों की शादी बड़े ही धूम धाम से हो। इसके लिए वे हर संभव प्रयास किया करते थे।

टंट्या भील के इसी प्रकार के कार्यो के कारण समाज के सभी आयु वर्ग के लोग उन्हे अपना “मामा” कहकर पुकारते थे। बाद में यही (मामा) संबोधन आगे चलकर “टंट्या मामा” के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

एक बार जेल तोड़कर भागने में सफल हुए:-

टंट्या भील उर्फ टंट्या मामा का जेल जाना शायद नियती को पसंद नहीं था। टंट्या मामा के जेल जाने की और बाद में जेल तोड़कर भागने की घटना काफी मशहुर है। कहा जाता है कि, एक बार टंट्या मामा अंग्रेजों के हाथ लगे। उनका अंग्रेजों के हाथ में लगना अंग्रेजों के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी। लेकिन उनकी यह उपलब्धि ज्यादा दिन तक नही टिक पाई। जब टंट्या भील उर्फ टंट्या मामा को अंग्रेजों ने बंदी बनाया था, तब उन्हे भारी पुलिस बल के साथ जेल में रखा गया था। लेकिन भेष बदलने में माहिर टंट्या भील ज्यादा दिनों तक जेल में बंद नही रहे। उन्होंने सभी अंग्रेज पुलिस को चकमा दिया और जेल से भाग निकले। जिसके बाद वे अंग्रेजों को दिखे तक नहीं। भारी पुलिस बल का पहरा होने के बावजूद, टंट्या भील का जेल तोड़कर भागना, अंग्रेजों के लिए बहुत बड़ा झटका था।

टंट्या भील की मदत करने के आरोप में कई निर्दोष लोगों को अंग्रेजों ने फांसी पर लटकाया:-

सातपुड़ा पर्वत का चप्पा चप्पा जानने वाले टंट्या भील ने अंग्रेजों को इस कदर परेशान किया कि, अंग्रेज उनके नाकामी के लिए बाकी निर्दोष आदिवासीयो को अपने नाकामी की वजह मानने लगे। निर्दोष आदिवासीयो को टंट्या भील की मदत करने के आरोप लगाकर अंग्रेज उन्हे तंग करने लगे, धमकाने लगे।

कहा जाता है कि, टंट्या भील की मदत करने के आरोप में अंग्रेजों ने हजारों निर्दोष आदिवासीयो को जेल में बंद किया। तो वही कई को फांसी पर लटका दिया। इतना प्रताड़ित करने के बाद भी किसी भी आदिवासी ने टंट्या भील के साथ गद्दारी नही की, आदिवासीयो ने जेल मे जाना पसंद किया, मरना पसंद किया लेकिन उन्होंने टंट्या भील का साथ नही छोड़ा। आदिवासीयो के इस हौसले से अंग्रेज काफी हताश हुए। उन्हे लगने था कि, शायद वे कभी टंट्या भील को पकड़ नही पाएंगे।

टंट्या भील मामा के खजाना लूटने के सिलसिले से अंग्रेजों के, रियासतदारों के और सेठ साहुकारों के राजस्व मे भारी कमी आई। सेठ साहूकार और रियासतदार अंग्रेज सरकार के पास अपना राजस्व घटने की शिकायते करने लगे। जिसके जिसके कारण अंग्रेज सरकार अपने अधिकारियों और पुलिस बल को भारी तंग करने लगी। सरकार की गाज सरकारी अधिकारियों, अफसरों पर गिरने लगी।

इनाम घोषित किया गया:-

इस सारे घटनाक्रम के बाद अंग्रेजों ने टंट्या भील मामा को दुबारा पकड़ने के लिए जनता को अलग अलग प्रलोभन दिए। अंग्रेजों ने टंट्या भील मामा पर, उन्हे पकड़ने में मदत करने के लिए इनाम घोषित किया गया। सरकार ने पत्रक जारी किया जिसमे कहा गया था कि, जो भी कोई टंट्या भील को पकड़ने में अंग्रेजों की सहायता करेंगा। उसे अंग्रेज सरकार की तरफ से इनाम दिया जाएंगा।

वो कहते ना “परायो से ज्यादा हमें अपनों से खतरा ज्यादा होता है“। यही टंट्या भील मामा के साथ भी हुआ। उन्हे अंग्रेजों को पकड़कर देने मे उनके ही अपनों ने अंग्रेजों की सहायता की। टंट्या भील की बहन के पति जिनका नाम गणपत था, इन्होंने टंट्या भील मामा के साथ विश्वासघात किया। गणपत ने अपने ही घर पर कट बनाकर टंट्या भील मामा को पकड़वाया। टंट्या भील की बहन के पति, गणपत के कारण अंग्रेज सरकार टंट्या भील को पकड़ने में कामयाब हुई।

जिसके बाद टंट्या भील मामा को सख्त सुरक्षा घेरे में इंदौर लाया गया। जहाँ उन्हे इंदौर में ब्रिटिश रेजीडेन्सी क्षेत्र के “सेंट्रल इंडिया एजेंसी जेल” में कुछ दिन रखा गया। पिछली बार जेल से भागने में सफल हुए टंट्या भील मामा इस बार जेल तोड़कर नही भाग पाए। उनपर अंग्रेजों ने सख्त पहरा लगाया। उन्हे भारी भरकम जंजीरोें से बांध कर रखा गया।

बाद में कुछ समय बीत जाने के बाद, उन्हे इंदौर के सेंट्रल इंडिया एजेंसी जेल से निकालकर सख्त सुरक्षा घेरे में जबलपुर लाया गया। जहा उनपर कोर्ट ट्रायल चला। इसी जबलपुर की जेल में उनको अंग्रेजों ने काफी प्रताड़ित किया। उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया। बाद में जबलपुर कोर्ट ने उन्हे 19 अक्टूबर 1889 को मौत की सजा सुनाई।

न्यूयॉर्क टाइम्स में गिरफ्तारी की खबर:-

जैसे ही टंट्या भील उर्फ टंट्या मामा को अंग्रेजों ने गिरफ्तार किया, वैसे ही यह खबर देश विदेश में हवा की तरह फैल गई। क्युकी मामा टंट्या भील की गिरफ्तारी अंग्रेजों के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि थी। मामा टंट्या भील के लोकप्रियता का उनके वीरता का अंदाजा हम इस बात से लगा सकते है कि, जब उन्हे गिरफ्तार किया गया, तब दुनिया के एक प्रमुख अखबार ने उनके गिरफ्तारी की खबर को अपने न्यूज़ पन्ने पर जगह दी थी। न्यूयॉर्क टाइम्स ने इस खबर को सन् 10 नवंबर 1889 को अखबार में छापा था और उन्होंने मामा टंट्या भील को “भारत का राॅबिनहुड” कहा था।

मामा टंट्या भील की मौत:-

जबलपुर के सेक्शन कोर्ट ने 19 अक्टुबर 1889 को मौत की सजा सुनाने के बाद, मामा टंट्या भील को सन् 4 दिसंबर 1889 को अंग्रेजों ने फांसी पर लटकाया। इतना ही नहीं फांसी पर चढ़ाने के बाद भी अंग्रेजों ने उनके शव का उचित सम्मान नही किया और ना ही उनके शव को उनके परिवार के स्वाधीन किया। बल्कि अंग्रेजों ने मामा टंट्या भील के शव को इंदौर के खंडवा रेल मार्ग पर बने “कालापनी रेलवे स्टेशन” के पास फेंक दिया। मामा टंट्या भील के शव का इस तरह से अपमान करने से हम समझ सकते है कि, मामा टंट्या भील ने अंग्रेजों को कितना परेशान किया होंगा। जिसके कारण उनको फांसी पर लटकाने के बाद भी अंग्रेजों का गुस्सा शांत नही हुआ।

टंट्या मामा का मंदिर:-

जिस स्थान पर अंग्रेजों ने उनके शव को फेंका था। उस स्थान पर आज वर्तमान में हमें मंदिर नजर आता है। इस मंदिर का निर्माण आदिवासी भील समाज ने ही, उनके सम्मान में किया है। जिसके वे हकदार थे। भील समाज ने यहाँ अपने सामाजिक रीतिरिवाजों के साथ क्रांतिकारी टंट्या मामा का एक लकड़ी का पुतला बनवाकर यहाँ स्थापित किया और बाद में उनके मंदिर का भी निर्माण किया। आज वर्तमान में हजारों की तादाद में लोग यहाँ उनके दर्शन करने के लिए आते है। खासकर आदिवासी समाज हर साल यहाँ उनके दर्शन करने के लिए आता रहता है। भील कोइतुर जनजाति मे टंट्या मामा को सबसे ज्यादा महत्व है।

मामा टंट्या भील के सम्मान में ट्रेने भी यहाँ रुक कर उनको श्रधांजली देती है:-

हमने कई सारे ऐसे रेल मार्ग देखे हैं जहाँ मंदिर रेल मार्ग के निकट होता है। फिर जब भी वहा से ट्रेने गुजराती है तब भगवान के सम्मान में उनकाे नमन करने के लिए अक्सर ट्रेन को थोड़ी देर के लिए वहा रोका जाता है। लेकिन मध्यप्रदेश का यह क्रांतिकारी टंट्या मामा को समर्पित बने इस मंदिर के पास से भी जब ट्रेने गुजराती है, तब उनको श्रधांजली देने के लिए उनके सम्मान में ट्रेन को थोड़ी देर के लिए यहाँ रोका जाता है। आपको बता दे कि, क्रांतिकारी टंट्या मामा मंदिर से जुड़ी यह परंपरा बरसो से चली आ रही है और यह परंपरा आज भी जारी है।

टंट्या मामा को देवता के रूप में पूजते है आदिवासी:-

आज भलेही मामा टंट्या भील हमारे बीच नही है। लेकिन उनके कार्य और साहस के कारण आज भी निमाड़, मालवा, धार – झाबुआ, बैतुल होशंगाबाद, महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के आदिवासी उन्हें अपने देवता के रूप में पूजते है। हर साल यह आदिवासी उनकी याद मे उत्सव का आयोजन करते है। आज भी हम इन इलाको मे रहने वाले आदिवासीयो के घरों में मामा टंट्या भील के वीरता की कहानियाँ सुन सकते है।

जननायक टंट्या भील पुरस्कार:-

आदिवासी जनजातियों को देश के मुख्य प्रवाह में लाने के लिए संविधान ने भी उन्हे विशेष अधिकार दिये है। इतना ही नही संविधान ने सरकार की भी जिम्मेदारी निश्चित की है कि, वे आदिवासीयो को देश के मुख्य प्रवाह में लाने के लिए प्रयास करे। जिसके तहत सरकारें आदिवासीयो को मुख्य प्रवाह में लाने लिए काम करती रहती हैं। मध्यप्रदेश सरकार ने भी आदिवासीयो को मुख्य प्रवाह में लाने के लिए और प्रतिभावान युवाओं को प्रोस्ताहित करने के लिए “जननायक टंट्या भील पुरस्कार” का निर्माण किया। इस पुरस्कार के तहत सरकार आदिवासीयो को मुख्य प्रवाह में लाने के लिए प्रोस्ताहित कर रही है।

ऐसे थे क्रांतिकारी टंट्या भील उर्फ टंट्या मामा। जिन्होंने अंग्रेजों, सेठ, साहुकारों और रियासतदारो का खजाना लूटा और उस खजाने को निस्वार्थ भाव से गरीबों के झोले मे डाला।

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????रामजी गोंड को नमन ये वो क्रांतिकारी थे जिन्होंने अंग्रेज़ो-निज़ामों से गुरिल्ला युद्ध लड़ा,बाद में उन्हें 1000 गोंड सैनिकों के साथ तेलंगाना में फाँसी दे दी गई.क्या ये इतिहास आपको पता है।

????अंग्रेज अफसर की दाढ़ी पकड़ने पर काट दिया था 12 साल के क्रांतिकारी बिशन सिंह कूका का सिर।

टंट्या मामा एक स्वाभिमानी नायक थे। जिन्हे अंग्रेजों की, राजा – महाराजाओं की गुलामी करना पसंद नहीं था। वे मरते दम तक अपने संस्कृति के लिए, अपने वतन के लिए अंग्रेजों से लड़ते रहे और अंत मे अपने वतन के लिए ही शहीद हुए।

लेकिन दुर्भाग्य की बात तो यह भी है कि, आज भी कुछ ऐसे लेखक मौजूद है जो इस महान क्रांतिकारी नायक को चोर, डाकू, लुटेरा जैसी सज्ञाएं देकर उनका अपमान करते है। जो सरासर गलत है।

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