छिन्नमस्ता देवी फोटो|छिन्नमस्ता देवी| छिन्नमस्ता देवी का रहस्य| छिन्नमस्ता देवी मंदिर|chhinnamastika devi|
संपूर्ण भारत में आज ढेरों ऐसे देवताओ के मंदिरे, दरगाह है। जो अपने रहस्यों के चलते पूरे विश्व में कुतुहलता का विषय हमेशा बने रहते है। विज्ञान ने आज इतना विकास करने के बावजूद भी, विज्ञान इनके रहस्यों के पीछे की असल वजहों को उजागर नही कर पाया है।
अपने देश में ऐसे ढेरों स्थल मौजूद है। जो अपने रहस्यों के कारण पूरी दुनिया में आकर्षण का केंद्र बने हुए है। लेकिन क्या हम इन तमाम ठिकानो के रहस्यों के बारे में जानते है? शायद नही, लेकिन हम ऐसे रहस्यो के बारे में अपनी साईट interestinghindiall.in पर जानकारी हमेशा शेअर करते रहते है। ऐसी ही एक रहस्यमय जानकारी हम आपको इस लेख में बताएंगे।
आइए जानते है इस लेख में छिन्नमस्तिका देवी के बारे में और साथ ही जानेंगे कि, क्यों काटा था माँ छिन्नमस्तिका देवी ने अपना शीष? क्यों इस देवी माँ के रूप को कहते है छिन्नमस्तिका?
कैसा है माँ छिन्नमस्तिका का रूप :

एक हाथ में खड़क और दूसरे हाथ में अपना ही सर लेके, माँ छिन्नमस्तिका एक कमल पुष्प पर खड़ी है, जो आगे की ओर बढ़ते हुए प्रतीत होती है। माँ छिन्नमस्तिका के पैरों के नीचे शयनावस्था मे कौन है? यह प्रश्न यहाँ आने वाले हर एक भक्त के मन में आता है। हम आपको बताना चाहते है कि, माँ छिन्नमस्तिका के पैरों के नीचे कामदेव और उनकी अर्धांगिनी रति है। जो शयनावस्था मे दिखाई देती है।
माँ छिन्नमस्तिका का गला मौल्यवान आभूषण से नही, बल्कि सर्पमाला और नरमुंडो की माला से सुशोभित दिखाई देता है। माँ के दोनों साईट मे हमें दो और महिलाएं हाथ में खड़क और रक्त से भरा प्याला लिए दिखाई देती है। यह दोनों महिलाएं माँ छिन्नमस्तिका की सखियाँ है। जिनका नाम जया और विजया है। माँ के गले से तीन रक्त की धाराएं बाहर निकलती हुई हमें दिखाई देती है। इन तीन रक्त की धाराओं में से एक धारा को माँ का शीष ग्रहण करता है, तो वही बाकी के दो धाराओं का सेवन माँ की दोनों सखियाँ जया और विजया सेवन करती है। माँ छिन्नमस्तिका के केश हवा में लहराते हुए उनके प्रचंड और रौद्र रूप को दर्शाते है।देवी माँ का यह प्रचंड और रौद्र रूप ही इस स्थल के सुंदरता मे चार चाँद लगा देते है।
यह है माँ छिन्नमस्तिका के रूप के पीछे का असल रहस्य :
माँ छिन्नमस्तिका के इस रूप की दो कथाए धार्मिक ग्रन्थों में और स्थानिको में प्रचलित है।
कथा नं. 1
धार्मिक ग्रन्थों में किए गए वर्णनों के मुताबिक बताया गया है कि, एक बार देवी माँ अपनी सहेलियों के साथ (जया और विजया) नदी में स्नान करने के लिए जाती है। नदी में स्नान के लिए जाते वक्त अर्थात जंगल से ही गुजरना पड़ता है। कहानी के अनुसार, जब देवी माँ और उनकी सहेलियाँ रास्ते से चल रही थी, तब माँ के दोनों सहेलियों को भूख लग जाती है और वे दोनों देवी माँ को कहते भी है कि, उन्हे भूख लगी है। तब माँ देवी अपनी दोनों सहेलियों को कहती है कि, स्नान करने के बाद हम आप दोनों के लिए कुछ खाने का प्रबंध करेंगे। लेकिन थोड़े ही देर बाद देवी माँ की दोनों सहेलियाँ चलने से काफी थक जाति है और भूख लगने के कारण उन दोनों का शरीर काला पड़ने लगता है। भूख की व्याकुलता के कारण आखिरकार देवी माँ की दोनों सहेलियां जया और विजया देवी माँ को कहती है कि, “कैसी माँ हो आप ? सारे संसार की जगत जननी होने के बावजूद भी आप हमारे भूख की व्याकुलता को शांत भी नही कर सकती। भूख के कारण हमारा शरीर काला पड़ते जा रहा है। लेकिन फिर भी आप जगत जननी माँ होकर भी कुछ भी नही कर रही हो।” अपने सहेलियों की यह बात सुनकर और उनके भूख की व्याकुलता को देखकर, आखिरकार देवी माँ अपना प्रचंड रूप धारण कर लेती है और अपने ही पास के खड़क से अपना शीष काट देती है। जो उनके हाथ पर आ गिरता है। इसके बाद उनके धड़ से रक्त की तीन धराए निकलने लगती है। जिसमें से एक धारा का सेवन खुद देवी माँ का शीष करता है, तो वही बाकी के दो धाराओं का सेवन उनकी दोनों सहेलिया जया और विजया करती है। माँ के इस छिन्न मस्तिष्क के रूप को आज सारा जगत उन्हे “छिन्नमस्तिका” के नाम से पूजता है।
कथा नं. 2
देवी माँ के इस रूप से जुड़ी और एक कथा प्रचलित है।
एकबार पूरे संसार में दैत्य या राक्षसों का काफी आतंक बढ़ जाता है। इस आतंक को रोकने के लिए देवता, दैत्यों से भीड़ जाते है। जिसके कारण देवताओ मे और दैत्यों मे एक भीषण युद्ध छिड़ जाता है और पूरे संसार में त्राहि त्राहि मच जाती है। कहानी के अनुसार इस युद्ध मे दैत्य देवताओं पर भारी पड़ने लगते है। जिसके बाद देवताओ का एक समूह माँ पार्वती के चरण में सहायता मांगने जाता है और उन्हें इस युद्ध मे देवताओ की सहायता करने की कामना करता है। जिसके बाद माँ पार्वती युद्ध स्थल पर आकर दैत्यों को युद्ध समाप्त करने का आवाहन करती है और संसार में आतंक ना फैलाने की सलाह देती है। लेकिन दैत्य माँ पार्वती की बात नही मानते और देवताओ का संहार करने लगते है। जिसके बाद मजबूरन माँ पार्वती को काली या चंडिका का रूप धारण करना पड़ता है। जैसे ही माँ पार्वती काली या चंडिका का रूप लेती है, वह रास्ते में आने वाले हर किसी का वध करना शुरू कर देती है।
इस युद्ध मे माँ काली या चंडिका के साथ उनकी दो सहचरनिया डाकिनी और शाकिनी भी होती है। जो राक्षसों का संहार कर रही होती है।
कथा के अनुसार जब माँ काली या चंडिका दैत्यों का संहार करती है, तब दैत्य युद्धभूमि छोड़कर भागने लगते है। अपने इस प्रचंड रौद्र रूप में दैत्यों का संहार करने के बाद भी माँ काली नही रुकती है और अब वह निर्दोषों का भी वध करने लग जाती है। माँ के इस प्रचंड रौद्र रूप के कारण संसार का संहार होते हुए देखकर सभी देवता संसार के नष्ट होने के डर से महादेव भगवान के शरण मे जाते है और उन्हें माँ काली को रोकने का आवाहन करते है। बाद में देवो के देव महादेव माँ काली के समक्ष जाकर उन्हे शांत होने का आग्रह करते है। लेकिन माँ काली शांत नही हो पाती और वह महादेव से कहती है कि, “हे नाथ मेरी शुधा अभी शांत नही हुई है। तो फिर मै कैसे रुक सकती हु?” तब महादेव माँ काली को कहते है कि, आप खड़क से अपना शीष काटिए और जब आपके शरीर से रक्त की धाराएं निकलेंगी, तब आप उस रक्त का रक्तपान करिए। तब आपकी शुधा शांत हो जाएंगी।
इसके बाद माँ काली अपने ही खड़क से अपना शीष काट देती है। जब माँ काली अपना शीष काटती है, तो वह शीष उनके हाथ में जा गिरता है। शीष काटने के बाद माँ काली के गले से रक्त की तीन धराए निकलने लगती है। जिसमे से एक धारा माँ और बाकी की दो धराए डाकिनी और शाकिनी पीती है। माँ काली के इस प्रचंड रौद्र रूप को देखकर देवता उन्हे छिन्नमस्तिका देवी का नाम देते है। उनके इस प्रचंड रौद्र रूप के कारण उन्हे प्रचंड चंडिका भी कहते है।

छिन्नमस्तिका शब्द का अर्थ :
छिन्नमस्तिका का मीनिंग समजने के लिए पहले हम इस शब्द को दो भागो में विभाजित करते है। छिन्न + मस्तिका।
छिन्न का सामान्य बोलचाल में अर्थ होता है। छिन्नभिन्न होना, छिन्नभिन्न करना, अलग अलग करना आदि।
मस्तिका का अर्थ होता है। मस्तक, शीष, सिर या फिर हमारा सामान्य बोलचाल का शब्द मुंडी।
जब देवी माँ ने अपने ही खड़क से अपना ही सर काटा था। तब देवी के उस रूप को छिन्नमस्तिका कहा जाने लगा। स्थानिक लोग छिन्नमस्ता, छिन्नमस्तिका और प्रचंड चंडिका जैसे नामो से माँ को पुकारते है।
कहा स्थित है माँ छिन्नमस्तिका देवी का मंदिर :

हिंदू धर्म ग्रंथो में बताए गए तमाम देवी देवताओ मे से एक माँ छिन्नमस्तिका का मंदिर अपने देश के झारखंड राज्य में आता है। झारखंड की राजधानी और प्रमुख शहर रांची से लगभग 80 किमी दूर रजरप्पा नाम का तीर्थस्थल है। इसी तीर्थस्थल मे माँ छिन्नमस्तिका देवी का मंदिर स्थित है। यह रजरप्पा तीर्थस्थल झारखंड के रामगढ़ जिले में आता है। आपको बता दे कि, देवी छिन्नमस्तिका का मंदिर दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा शक्तिपीठ है। यह हिंदू धर्म का एक प्रमुख आस्था का केंद्र है। यह मंदिर दो प्रमुख नदियाँ दामोदर और भैरवी-भेड़ा के संगम पर विराजमान है। यह स्थल वर्तमान में एक प्रमुख पर्यटन स्थल के रूप में भी विकसित हुआ है। रजरप्पा, साथ मंदिरों का एक प्रमुख तीर्थस्थल है।
छिन्नमस्तिका माँ के मंदिर का निर्माणकाल :
छिन्नमस्तिका मंदिर दुनिया के उन तमाम ठिकानो मे शामिल है। जिनका निर्माण काल काफी पुराना है। छिन्नमस्तिका मंदिर के निर्माण काल को लेकर विशेषज्ञ अपनी अलग अलग राय देते है। कहा जाता है कि, यह मंदिर 6000 वर्ष पहले बनाया गया था, तो वही इस मंदिर के निर्माण काल को लेकर ऐसा भी कहा जाता है कि, यह मंदिर महाभारत काल के समय में बनाया गया था। कुछ भी हो लेकिन इस मंदिर की भव्यता और माँ छिन्नमस्तिका का रूप यहाँ आने वाले हर शख्स के लिए एक कुतूहलता का विषय जरूर है।
देवी माँ के इस स्थल को रजरप्पा नाम क्यों पड़ा?
छिन्नमस्तिका मंदिर और इस स्थल के नाम से जुड़ी भी एक कहानी बताई गई है।
कहा जाता है कि, प्राचीन काल में छोटा नागपुर नाम के राज्य पर “रज” नाम का राजा शासन करता था। अपार सुख- समृद्धि होने के बावजूद भी राजा के पास एक चीज की कमी थी। वह यह थी कि, राजा निसंतान था। कहा जाता है कि, राजा ‘रज’ एकबार पूनम की रात में शिकार की तलाश में दामोदर और भैरवी-भेड़ा नदियों के संगम पर आ पहुँचता है। इस स्थल पर आने पर राजा को रात्रि काफी हो चुकी होती है। इसलिए राजा यही विश्राम करने की सोचता है और वह यहाँ विश्राम के लिए रुक जाता है। विश्राम करते वक्त राजा की आँख लग जाती है और राजा इन नदियो के संगम पर ही सो जाता है। कहा जाता है कि, इसी दौरान राजा को एक स्वप्न आता है। स्वप्न में राजा रज एक सुंदर कन्या को देखता है। जो लाल रंग के वस्र को परिधान किए होती है।
स्वप्न में यह कन्या राजा ‘रज’ को कहती है कि, “हे राजन मै जानती हु कि, इस आयु में तुम्हें संतान ना होने के कारण, तुम्हारा जीवन काफी सुना-सुना सा है। पर अगर तुम मेरे आज्ञा का पालन करोंगे, तो तुम्हारे रानी की सुनी पड़ी गोद भर जाएंगी।”
बस इतना सुनते ही राजा ‘रज’ स्वप्न से बाहर आ जाता है। स्वप्न में जो देखा उसे याद करते हुए राजा उस कन्या को इधर उधर खोजने लगता है। वह इधर उधर भटकने लगता है और थककर नदी किनारे आकर बैठ जाता है। इसी दौरान नदी के पानी से एक कन्या प्रकट हो जाती है। जो बिलकुल स्वप्न में दिखी कन्या की तरह होती है। स्वप्न में दिखी कन्या को अपने समक्ष पाकर राजा बहुत खुश हो जाता है और भयभीत भी होता है।
राजा रज को देखकर वह कन्या राजा को कहती है कि, “हे राजन ऐसे भयभीत ना हो। मै छिन्नमस्तिके देवी हू। मै इन नदियों के संगम पर अदृश्य रूप में प्राचीन काल से निवास कर रही हूँ। जिस कारण, इस कलियुग में मुझे कोई नहीं जानता है।” कहानी के अनुसार आगे माँ छिन्नमस्तिका देवी राजा रज को वरदान देती है कि, आज से नौ महीने बाद उन्हे संतान के रूप में पुत्र की प्राप्ति होंगी।
आगे माँ छिन्नमस्तिका राजन को कहती हैं कि, “हे राजन इन नदियों के मिलन स्थल के समीप तुम्हे एक प्राचीन मंदिर दिखाई देंगा। जिसके अंदर एक शिला पर तुम मेरी प्रतिमा को पाओंगे। तुम सुबह सुबह मेरी वहा जाकर पूजा करो।” ऐसा कहकर वह कन्या जो माँ छिन्नमस्तिका थी। वहा से गायब हो जाती है।
देवी माँ से वरदान मिलने के बाद राजा रज को पुत्र की प्राप्ति भी होती है। कहा जाता है कि, राजा रज के यहाँ पूजा करने से ही इस स्थान को रजरप्पा नाम पड़ा। रजरप्पा नाम राजा के नाम से (रज) और राजा की पत्नी रुपमा के नाम के मिलन से ही बना है। इस नाम मे हमें राजा के नाम के साथ-साथ रानी रुपमा के नाम का भी उल्लेख दिखाई देता है।
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यह थी माँ छिन्नमस्तिका देवी की पूरी जानकारी, कैसी लगी हमें कंमेंट करके जरूर बताए।
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