भारत का मध्यकाल काफी रक्तरंजित था। इस काल में भारत पर कई सारे विदेशी आक्रमण हुए थे। लेकिन सबसे ज्यादा आक्रमण इस्लामिक शासको के हुए, जो काफी महत्वपूर्ण भूमिका भारत के मध्यकालीन इतिहास में निभाते है। इस काल में भारत पर बड़ी मात्रा में इस्लामिक शासको का आक्रमण हो रहा था। जब भारत में मध्यकाल का प्रारंभ हुआ, तब इस्लामिक शासक अपनी जड़े भारत में मजबूत कर रहे थे। वे एक के बाद एक प्रांत को अपने कब्जे में ले रहे थे।
उस समय जब इस्लामिक शासक भारतीय राजाओं के राजमहल तक दस्तक देते थे। जब किले के अंदर की दुश्मनो के घेराबंदी के कारण रसद खत्म हो जाती थी, जब किले के भीतर का दरुगोला खत्म हो जाता था, या फिर यू कहे कि, जब भारतीय राजाओं की जितने की पूरी संभावना खत्म हो जाती थी और हार की आशंका निश्चित हो जाती थी, तब विशेषकर भारत के उत्तर पश्चिम क्षेत्र में जिन प्रथाओं का समान रूप से पालन किया जाता था। वे प्रथाएं थी जौहर प्रथा और साका (या शाका) प्रथा।
इन प्रथाओ की चर्चा जब आज भी होती है, तब आज भी हम स्तब्ध होकर इन दोनों प्रथाओ के बारे में सोचने पर मजबूर हो जाते है। आज भी जब हम इन प्रथाओ के बारे में सुनते हैं या पढ़ते है, तो हमें आश्चर्य होता है। हमारी रूह काँप उठती है। लेकिन ऐसा है क्या इन प्रथाओ मे, क्यों आज भी इन प्रथाओ के बारे लोग जानना चाहते है आइए जानते है।
जौहर किसे कहते है?
जब दुश्मन, राज्य के प्रमुख किले की घेराबंदी करता है और हार जब निश्चित होतीं हैं। तब दुश्मन, किले के अंदर प्रवेश करने से पहले राजमहल मे (या मुख्य किले में) रहने वाली सभी स्त्रियाँ जिनमे सभी रानियां, राजमाता, राजा की बहने, या राजा के सगे संबंधी, बच्चे, बुजुर्ग और इन सभी की सेवा करने वाली दासिया अपने सुहाग की सभी निशानियाँ पहनकर और एक दुल्हन की तरह सजधज कर एक बड़ी चिता मे अपना कदम रखतीं थी और उस अग्नि कुंड में खुद को एक साथ जलाकर भस्म कर देती थी। महल की सभी महिलाओ द्वारा किए जाने वाले इस सामूहिक अग्नि प्रवेश को “जौहर प्रथा” कहा जाता है।
साका (या शाका) किसे कहते है?
जब महल की सभी महिलाए (राजमाता, रानियों सहित) जल कर राख हो रही होतीं हैं, तब राजा, उनके सरदार और सेना, केसरी रंग की पगड़ी बांधकर और केसरी रंग के वस्त्र धारण करकर, क्युकी केसरी रंग हिंदू धर्म में त्याग और शौर्य का प्रतिक होता है। इसलिए केसरी रंग के वस्त्र और पगड़ी बांधे, अपने मुख में तुलसी के पत्र को रखकर किले के द्वार को खोलते है। जैसे ही दुश्मन किले के भीतर प्रवेश करता है, वैसे ही सभी योद्धा अपने अंतिम सांस तक अधिक से अधिक संख्या में दुश्मनो का वध करने के लिए उनपर टूट पड़ते है और अंत में विरगती को प्राप्त होते है। जौहर के बाद सभी योद्धाओं द्वारा किए जाने वाले इस संहिता को “साका (या शाका) प्रथा” कहा जाता है।
इस प्रथा के तहत युद्ध लढने वाले योद्धाओं को अपने मौत का जरा सा भी भय नही होता था। साका प्रथा के तहत होने वाले युद्ध का मंजर काफी डरावना होता था।
जौहर और साका आखिर क्यों किया जाता था?
हर किसी के मन में भी यह सवाल उठा होंगा कि, आखिर इतने त्रास दायक प्रथा पर ही क्यो अमल किया जाता था। हार मानकर महल क्यो नहीं छोड़ दिया जाता था। या फिर जहर खा कर अपना जीवन क्यो नहीं समाप्त करती थी महिलाए? इतने पिडादायक प्रथा को ही क्यों चुन लिया करती थी महिलाए?
इन सभी सवालों के पीछे की वजह भी काफी मार्मिक, दुःखद और भयानक है। जौहर या साका करने के पीछे की मुख्य वजह बलात्कार, अपमान, गुलामी और अपने पवित्रता को बचाने के लिए किया जाता था। अरब आक्रमण सिंध में अपने क्रूरता और भयानक परिणामों के लिए काफी कुप्रसिद्ध थे। इस्लामिक आक्रमणकारीयो द्वारा महिलाओ के शव का भी बलात्कार या शव का अपमान करने की संभावना होतीं थी। इसलिए महिलाएं अपने पवित्रता के लिए भी जहर खाकर मरने से बेहतर खुद को अग्नि में जलकर मरना पसंद करती थी।
जौहर मे खुद को भस्म करने वाली महिलाएं वीरता और अपने पवित्रता के लिए जानी जाती थी। जौहर करके खुद को भस्म करने वाली महिलाएं जीवित रहकर अपमान और जुदाई का जीवन जीने से बेहतर अपने पति के लिए जुदाई और अपमान का जीवन त्याग कर अग्नि में जलकर मरना स्वीकार करती थी।
इसी तरह यौद्धा भी अपमान का जीवन जीने से बेहतर साका के लिए जंग में अपने अदम्य साहस और प्राणो को कुर्बान करने के लिए जंग में निडरता के साथ युद्ध मे कूद पड़ते थे और वीरगती को प्राप्त होते थे। वीरगती को प्राप्त हुए ऐसे यौद्धाओ को इतिहास और दुनिया सम्मान की नजर से उनके तरफ देखती है।
उत्तर पूर्वी भारत में बसने वाले राजपूत अपने इसी अदम्य साहस, निष्ठा और मान सम्मान के लिए आज भी वर्तमान में जाने जाते है।
जौहर के बाद किया जाता था साका :-
पारंपरिक रूप से जौहर प्रथा को साका के पहले किया जाता था। इसके पीछे भी एक वजह छिपी हुई है और वह ये है कि, ताकि दुश्मनों को पता चले कि, अब जौहर होने के बाद अब साका होने वाला है। ऐसा इसलिए किया जाता था। ताकि अपने दुश्मनों को मालूम चले कि, जब युद्ध मे साका होंगा, तो उस युद्ध का मंजर काफी भयानक और डरावना रहेंगा। क्युकी साका होने वाले युद्ध का परिणाम दुश्मनों को पता है कि, जब भारतीय यौद्धा साका करते है, तब साका करने वाले यौद्धाओ को किसी भी चीज से मोह या डर नही होता है। उन्हे कुछ भी खोने का डर नही होता है। वे बिना अपने जान माल या किसी भी चीज की परवाह किए बगैर मरते दम तक लड़ते रहते है। यह सब दुश्मनों के हौसले का खाच्चिकरण करने के लिए किया जाता था। यह भी युद्धनिती का एक भाग ही था।
और एक वजह यह भी है कि, जौहर करने वाली महिलाए अपने साथ अपने सुहाग के निशानियों के अलावा राज्य की धनसंपदा को भी जौहर कुंड में डालकर अपने साथ भस्म कर देती है। इससे होता यह था कि, दुश्मन राजा को और उसकी सेना को ना ही कोई स्त्री उपभोग और दासी बनाने के लिए मिलती थी और ना ही राज्य का खजाना मिलता था। सीधे तौर पर कहे तो, ऐसा करने पर भारतीय शासक हार कर भी अपने दुश्मनों से जीत जाते थे और दुश्मन जीतकर भी हार जाता था।
जब हार निश्चित होने पर किए जाने वाले जौहर प्रथा और साका प्रथा को भारतीय शासको द्वारा अपना गई सबसे अच्छी और अंतिम रणनिती मानी जाती है। जिसके तहत दुश्मन को जीत मिलने पर भी हार मिलती है।
जौहर और साका के इतिहास में कई सारे सबूत मौजूद है:-
अलेक्जेंडर के समय में (336 ईसा पूर्व से 323 ईसा पूर्व) :-
“द अनाबैसिस ऑफ अलेक्जेंडर” नामक किताब में भारत में हुए जौहर का जिक्र हमें मिलता है। कुछ इतिहासकारों की माने तो वे इस जौहर को भारत का प्रथम जौहर मानते है। जिसका स्पष्ट रूप से उल्लेख इस किताब में किया हुआ है। भारत का यह जौहर अलेक्जेंडर के समय में सन् 336 ईसा पूर्व और 323 ईसा पूर्व के बीच हुआ था। जब अलेक्जेंडर ने भारत के उत्तर – पश्चिमी क्षेत्र पर आक्रमण किया था। उस समय इस क्षेत्र में अगालसुसी नामक जनजाति निवास करती थी। जब अलेक्जेंडर ने इस क्षेत्र पर आक्रमण किया था, तब अगालसुसी जनजाति के करीब 20 हजार महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों ने जौहर किया था। इस जौहर की हम केवल कल्पना ही कर सकते है कि, कैसे उन 20 हजार महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों ने खुद को आग के हवाले किया होंगा।
सिंध का जौहर (मोहम्मद बिन कासिम सन् 721 ईस्वी) :-
सन् 721 ईस्वी मे भारत पर इस्लामिक कट्टरपंथी शासक मोहम्मद बिन कासिम ने एक नही, बल्कि चार बार आक्रमण किया था। उस समय भारत के सिंध प्रांत पर राजा दाहिर का शासन हुआ करता था। जब मोहम्मद बिन कासिम ने राजा दाहिर पर आक्रमण किया था, तब उसे तीन बार कड़ी हार का सामना करना पड़ा था। राजा दाहिर ने उसे तीन बार शिकस्त दी थी। लेकिन चौथी बार वह जितने मे कामयाब हुआ। इस चौथी बार के युद्ध मे मोहम्मद बिन कासिम को ना केवल राजा दाहिर से युद्ध के मैदान में लड़ना पड़ा था। बल्कि युद्ध जितने के बाद भी उसे महल में प्रवेश करने के लिए महल के महिलाओं से भी लड़ना पड़ा था। महल में रहने वाली महिलाओ ने महल के भीतर से किला कई महीनों तक लड़ा था। जब हार होना निश्चित लगने लगी, तब महल की सभी महिलाओं ने जौहर कर लिया था।
रणथम्भौर का जौहर :-
अमीर खुसरों द्वारा फारसी भाषा में रचित किताब में इस रणथम्भौर के जौहर का विस्तृत वर्णन हमें मिलता है। अमीर खुसरों अलाउद्दीन खिलजी के दिल्ली दरबार में एक दरबारी थे। इन्होंने ही अलाउद्दीन खिलजी और राजा हम्मीरदेव के बीच में हुए युद्ध का विस्तृत वर्णन अपने किताब में किया हुआ है। कैसे अलाउद्दीन खिलजी ने राजा हम्मीरदेव को युद्ध मे हराया था। उनके द्वारा किए गए वर्णन के हिसाब से सन् 1301 इस्वी मे सुलतान अलाउद्दीन खिलजी ने जब पहली बार राजा हम्मीरदेव पर आक्रमण किया था, तब अलाउद्दीन खिलजी को वापस खाली हाथ लौटना पड़ा था। लेकिन दूसरी बार अलाउद्दीन खिलजी ने अपने मुस्तेदगिरी से (झूठी मित्रता और छल कपट के जरिए) राजा हम्मीरदेव को शिकस्त दी थी। राजा हम्मीरदेव को धोखे से शिकस्त देने के बाद राजा हम्मीरदेव के एक मंत्री ने महल में रहने वाले सभी लोगों से राजा के मौत का बदला लेने के लिए जौहर और साका करने की सलाह दी।
चित्तौड़गढ़ का पहला जौहर :-
चित्तौड़गढ़ में तीन जौहर हुए थे। जिनकी जानकारी इतिहास में मिलती है। मलिक महमूद जायसी द्वारा लिखित “पद्मावत” मे चित्तौड़गढ़ के इस पहले जौहर के बारे में बताया गया है। कैसे सन् 1303 इस्वी मे अलाउद्दीन खिलजी ने अपने छल कपट वाली निती के तहत चित्तौड़गढ़ के राजा रावल रतन सिंह को हराया था और कैसे हार निश्चित होने के आसार नजर आने पर राजपूत रानी पद्मिनी ने जौहर किया था। लेकिन अलाउद्दीन खिलजी की गुलामी नही पत्करी थी।
????क्या आप जानते हैं खिलजी ने कैसे इंसानों को खाने वाले मंगोलों से की थी भारत की रक्षा.
कम्पिली राज्य का जौहर (उत्तरी कर्नाटक) :-
कम्पिली राज्य मे यह जौहर सन् 1327 इस्वी मे हुआ था। जब सुलतान मुहम्मद बिन तुगलक ने इस राज्य पर आक्रमण किया था। इस आक्रमण मे सुलतान मुहम्मद बिन तुगलक को बड़ी सफलता मिली थी। जिसके फलस्वरूप मे उत्तरी कर्नाटक के कम्पिली राज्य की हिंदू महिलाओं ने अत्याचार, गुलामी और अपने पवित्रता को बचाने के लिए भारी संख्या में जौहर किया था।
खानवा युद्ध के बाद का जौहर :-
सन् 1528 इस्वी मे राना सांगा और मुगल साम्राज्य के संस्थापक बाबर के बीच खानवा मे एक भयानक युद्ध हुआ था। इस युद्ध मे बाबर के खिलाफ लढने वाले राणा सांगा की मदत करने के लिए चंदेरी के राजा मदिनी राव भी आगे आए थे। लेकिन राणा सांगा को मदत मिलने के बावजूद भी हार गए। राणा सांगा को हराने के बाद मुगल सम्राट बाबर ने मदिनी राव पर भी आक्रमण किया और उसे भी जंग में हरा दिया। जैसे ही यह खबर फैली कि, बाबर ने राणा सांगा और मदिनी राव दोनों को भी युद्ध मे पराजित कर दिया है। तब बाबर की सेना के क्रूरता से बचने के लिए चंदेरी राज्य के हजारों हिंदू महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गो ने जौहर किया था। इस जौहर के बाद राज्य के यौद्धाओ ने केसरिया रंग की पगड़ी बांधकर और केसरिया रंग के वस्त्र धारण कर साका किया था। जिसमें बाबर की सेना का भयानक तरीके से कत्लेआम हुआ था।
रानी कर्णावती द्वारा जौहर:-
सन् 1528 इस्वी मे हुए खानवा युद्ध मे वीरगती को प्राप्त हुए राणा सांगा की पत्नी रानी कर्णावती ने अपने पति के मृत्यु के बाद राज्य की धुरा खुद संभाली थी। लेकिन कुछ समय बीत जाने के बाद गुजरात के सुलतान बहादुर शाह द्वारा उनके राज्य पर आक्रमण किया गया था। इस आक्रमण से अपने राज्य को बचाने के लिए रानी कर्णावती ने हुमायूँ को राखी भेजी और बहन की मदत करने का आवाहन किया था। लेकिन हुमायूँ अपनी मुहबोली बहन रानी कर्णावती की मदत करने पहुँचने तक सुलतान बहादुर शाह ने रानी कर्णावती के राज्य को तहस नहस कर जीत लिया था। तो वही रानी कर्णावती ने जिन्दा रहकर सुलतान बहादुर शाह की गुलामी स्वीकार करने के बजाए स्वाभिमान से जौहर करना पसंद किया था। कहा जाता है कि, रानी कर्णावती द्वारा किए गए इस जौहर मे उनके साथ बाकी 13000 हिंदू महिलाओं ने भी खुदको अग्नि के जौहर कुंड में जला कर भस्म कर दिया था।
हुमायूँ के समय का जौहर :-
राजा हुमायूँ के समय में भी जौहर हुए थे। हुमायूँ के समय में हुए तीन जौहर की जानकारी जो इतिहास के पन्नो में दर्ज है। पहला जौहर रानी चंदेरी के द्वारा सन् 1528 इस्वी मे किया गया था। दूसरा जौहर रानी दुर्गावती ने अपने 700 हिंदू महिलाओ सहित सन् 1532 मे किया था। तो वही तीसरा जौहर सन् 1543 मे रानी रत्नावली द्वारा किया गया था। इन सभी जौहर के बाद प्रथा के अनुसार तमाम राजपूत यौद्धाओ ने साका करके अपने खून से इस धरती को लहू-लूहान किया था और हुमायूँ को साका युद्ध का सबसे भयानक नतीजा दिखाया था।
औरंगजेब के दौरान का जौहर :-
दिसम्बर सन् 1634 में बुंदेलखंड में औरंगजेब द्वारा किए गए आक्रमण के कारण जौहर हुआ था। कुछ इतिहासकार इस बुंदेलखंड के जौहर को इतिहास के पन्नों में दर्ज भारत का अंतिम जौहर मानते है। बुंदेलखंड में यह जौहर औरंगजेब द्वारा हिंदुओं का, या फिर गैर मुस्लिम लोगों का जबरन धर्म परिवर्तन कराने के विरोध में हुआ था।
इस प्रकार जौहर या साका (या शाका) की कई घटनाए इतिहास में दर्ज है जो अपनी-अपनी कहानियाँ सुनाती है। भारत मे घटित इन घटनाओं मे सबसे ज्यादा घटनाए मध्यकालीन भारत में घटित हुई है। यू कहे तो भारत का मध्यकालीन इतिहास इन घटनाओं से काफी रक्तरंजित रहा है।
जौहर और साका (या शाका) पर विशेषज्ञों की राय :-
जौहर और साका पर विशेषज्ञों की राय दो धढो मे बटी हुई नजर आती है। जौहर पर सामाजिक विज्ञान के विशेषज्ञ अपनी अलग-अलग राय रखते है। कुछ विशेषज्ञ इस प्रथा को असहाय महिलाओ को पितृसत्तात्मक समाज ने दिया हुआ मानते है। जो महिलाओ की पुरुषों पर निर्भरता को मजबूत बनाने का प्रयास मानते है। मतलब पुरुष के बिना स्त्री का अस्तित्व नहीं है। कुछ विशेषज्ञ इस प्रथा को लेकर कहते है और मानते है कि, अगर पुरुष नही रहा, तो स्त्री ने खुद का अस्तित्व समाप्त कर देने की बात करता है। इन विशेषज्ञों के मुताबिक यह प्रथा महिलाओ से उनके जीने का हक छिनता है।
तो वही कुछ विशेषज्ञ उनके इस सोच पर आश्चर्य व्यक्त करते है। उनका मानना है कि, इस प्रथा को विकृत प्रथा मानने वाले विशेषज्ञों को हिंदू धर्म के बारे में और उस वक्त के इस्लामिक आक्रमणों और इस्लामिक शासको के धार्मिक असहिष्णुता, बरबरता और हिंसक विचारधारा के बारे में और अधिक पढ़ने की और जानने की जरूरत है। इस प्रथा का समर्थन करने वाले विशेषज्ञ कहते है कि, इन विशेषज्ञों की अज्ञानता हमें उनके इस प्रकार के विचारों से मालूम पड़ती है।
आगे इस प्रथा का समर्थन करने वाले विशेषज्ञ कहते है कि, ये सभी विशेषज्ञ यह क्यों नही सोचते है कि, युद्ध तो पहले भी बहुत बार हुए है। लेकिन मध्यकालीन भारत में ही जौहर और साका को सबसे ज्यादा बार क्यों किया गया है। साका या जौहर की सबसे ज्यादा घटनाएं मध्यकालीन भारत में ही क्यों हुई है। आगे वे कहते है कि, इन विशेषज्ञों की सोच इस बात को भी नजरअंदाज करती है कि, उस समय की भारत की महिलाए विशेषकर राजपूत महिलाए अपने पुरुषों के अदम्य साहस और सम्मान के मानदंडों पर खड़ा उतरने की सोच रखतीं थी।
राजपूतों के लोकगीतों मे ऐसे कई सारे उदाहरण हमें मिलते है। जिनमें राजपूत महिलाए अपने पुरुषों द्वारा किए गए किंचित भी कायरता को सहन नहीं करती थी और यह महिलाए अपने पुरुषों को इस बातों के लिए भी शर्मिंदा कराती थी। ताकि दुबारा वे कोई भी ऐसा कायरता वाला काम ना करे और हमेशा बहादुरी और सच्चाई की राह चुने और उसपर चलने का प्रयास करे। यही कारण है कि, जौहर के बाद साका या शाका पर निकलने वाले पुरुष मौत से बिना डरे और जीवित वापस आने के इरादे की कोई गुंजाइश बाकी नही छोड़ते थे।
आज जौहर या साका करने का काल बीत चुका है। यह परंपरा आज मर चुकी है। जो कभी उस काल में स्वाभिमान हुआ करती थी। आज वह किले और महल महज एक पर्यटन स्थल के रूप में जीवित है। जहाँ हम आज सेल्फी लेने और घूमने आते है। आज वर्तमान में हम इस प्रथा को एक विकृत प्रथा के तौर पर देखते हैं। लेकिन इस प्रकार से इस प्रथा को देखना सच मे सही है? यह आज हमें ही तय करना होंगा। जो प्रथा मध्यकालीन भारत में स्वाभिमान और पवित्रता का प्रतिक हुआ करती थी। जिस प्रथा को करके भारत की स्त्री खुद को गुलामी और अत्याचार से बचाती थी। आज वह प्रथा 21 वी सदी मे विकृत प्रथा कैसे हुई?
कुछ भी हो, लेकिन उस काल का एक गीत जो रानी संयोगिता ने अपने राजा (पृथ्वीराज चौहान) के लिए लिखा था। उस गीत को इतिहास के पन्नो में सदा के लिए अमरत्व मिला।
“हे चौहान वंश के सूर्य…. क्या जीवन अमर है? इसलिए अपनी तलवार खींचो और भारत के दुश्मनो का वध करो; स्वयं की परवाह न करो – इस जीवन के वस्त्र फट कर तार-तार हो गए है। मेरी चिंता मत करना। अगले जन्म और हर जन्म मे हम फिर मिलेंगे। हे मेरे सम्राट आगे बढ़ो.”