क्या आप जानते हैं 90 लाख पांडुलिपियों वाला नालंदा विश्वविद्यालय कैसा था?  🇮🇳 पढ़कर सीना होगा गर्व से ऊंचा 

नालंदा विश्वविद्यालय का इतिहास: आज भारत शिक्षा के मामले में 191 देशों की सूची में भले ही 145वें नंबर पर हो। लेकिन एक समय ऐसा भी था जब भारत दुनिया के लिए ज्ञान का स्रोत हुआ करता था। जी हां, आज हम भले ही कई हजार छात्रों पर सिर्फ एक शिक्षक देख रहे है। लेकिन 2 हजार साल पहले भारत के एक प्राचीन विश्वविद्यालय में उन दिनों 10,000 से ज्यादा छात्रों के लिए 2,000 शिक्षक थे, यानी सिर्फ 5 छात्रों पर एक शिक्षक। जी हां दोस्तों! हम बात कर रहे हैं नालंदा विश्वविद्यालय की। जो दुनियां का सबसे प्राचीन सबसे प्रसिद्ध विश्वविद्यालय था। जिसका डंका पुरी दुनियां में बजता था।

सबसे प्राचीन और प्रतिष्ठित nalanda university

नालंदा विश्वविद्यालय विश्व में सबसे प्राचीन और प्रतिष्ठित बौद्ध विश्वविद्यालय के रूप में विख्यात था। यह बिहार राज्य के प्रसिद्ध बौद्ध अवशेष स्थलों में से एक है। नालंदा बुद्ध के प्रमुख शिष्य सारिपुत्र का जन्मस्थान होने के कारण बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए यह एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल भी है। यह स्थान बिहार के पटना के दक्षिण-पूर्व में लगभग ७० किलोमीटर दूर और राजगीर के उत्तर में ११-२७ किलोमीटर की दूरी पर वडगांव नामक गाँव के पास स्थित है। प्राचीन काल में नालंदा अपनी शिक्षा के लिए विशेष प्रसिद्ध था। साहित्यिक ग्रंथों में नालंदा के कई नाम मिलते हैं, जैसे नल, नालक, नालकग्राम और नालंद ये सभी नाम नालंदा विश्वविद्यालय के नाम है जो उस समय प्रचलन में थे। इसके अलावा नालंदा नाम के बारे में कई कथाएं भी प्रचलित हैं। ई. स. ४१० में चीनी यात्री फाहियान ने नालंदा की यात्रा की थी, उस समय नालंदा का यह विहार एक बौद्ध विद्यालय के रूप में कार्यरत था। इसके बावजूद, वडगांव स्थित इस नालंदा बौद्ध विहार में ई. स. की तीसरी शताब्दी में नागार्जुन और ई. स. ३२० में आर्यदेव जैसे विद्वान पंडितों के निर्माण से इसकी प्राचीन महत्ता का आभास होता है।

nalanda vishwavidyalaya का विस्तृत परिसर और भव्य इमारतें 

आपको बता दें कि, नालंदा विश्वविद्यालय की जो स्थिति थी वह अत्यंत विस्तृत और मन को छू लेने वाली थी। एक विशाल प्राचीर  (जिसे तटबंदी या कंपाउंट भी कह सकते है) के भीतर इस विश्वविद्यालय की कई सारी इमारतें स्थित थीं। इनमें से कुछ इमारतें महाविद्यालय के लिए, कुछ इमारतें पुस्तकालय के लिए, और कुछ इमारतें आचार्यों एवं विद्यार्थियों के निवास के लिए बनाई गई थीं। आप पढ़कर दंग रह जाएंगे कि, यहाँ की कुछ इमारतें दो मंजिला थीं, तो वही कुछ इमारतें चार मंजिला, और कुछ तो नौ मंजिला थीं। इन इमारतों की दीवारें और स्तंभ अद्भुत अलंकरण से सज्जित थे। विश्वविद्यालय के चारों ओर सुंदर बाग-बगिचे थे जिनमें कमल के पुष्पों से सजे सरोवर थे। निवास स्थानों में भरपूर स्नानगृह और अन्य आवश्यक सुविधाएं थीं। विश्वविद्यालय परिसर में खेल के मैदान भी उपलब्ध थे। कहा जाता है कि, इस विश्वविद्यालय में लगभग १५१० शिक्षक और १०,५०० विद्यार्थी हर साल शिक्षा ग्रहण करते थे।

नालंदा विश्वविद्यालय के धर्मगंज नामक विभाग में दुनिया के सबसे बड़े पुस्तकालयों में से एक, विशाल ग्रंथालय स्थित था। ऐसा माना जाता है कि, यह इतना बडा था कि, इसकी तुलना में दुनियां कोई दूसरा ग्रंथालय नही था। यह ग्रंथालय तीन इमारतों में विभाजित था जिन्हें ‘धर्मगंज’ कहा जाता था। इन इमारतों के नाम थे रत्नसागर, रत्नोदधी और रत्नरंजन। रत्नोदधी नामक इमारत नौ मंजिला थी और इसमें तांत्रिक साहित्य का संग्रह था। रत्नसागर और रत्नरंजन नामक इमारतें छह मंजिला थीं। इन तीन इमारतों में नालंदा विश्वविद्यालय के लाखों ग्रंथ सुरक्षित थे। उस समय के किसी भी अन्य स्थान पर इतना विशाल ग्रंथ संग्रह कही नहीं था। इन पुस्तकों को अनमोल मानते हुए इन भवनों को इतने अद्वितीय नाम दिए गए थे, जो अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलते।

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Nalanda University photo: x.com/narendramodi

नालंदा विश्वविद्यालय का बहुविध अध्ययन और व्यापक पाठ्यक्रम

नालंदा विश्वविद्यालय में अध्ययन का स्तर अत्यंत उच्च कोटि का था, जहां केवल उच्च शिक्षा की ही व्यवस्था थी। यहां के पाठ्यक्रम में व्याकरण, साहित्य, तर्कशास्त्र, धर्मशास्त्र, योगविद्या और अठारह संप्रदायों का गहन अध्ययन शामिल था। बौद्ध धर्म के अलावा, यहां जैन और हिंदू धर्म के दर्शनशास्त्र का भी शिक्षा दी जाती थी। धार्मिक ग्रंथों के साथ-साथ, नालंदा में व्यावहारिक विषयों का भी ज्ञान प्रदान किया जाता था। चित्रकला, शिल्पकला, मंत्रविद्या, गणितशास्त्र और स्थापत्यकला जैसे विविध विषयों का अध्ययन यहां किया जाता था। इसके अलावा, विभिन्न भाषाओं का भी यहां अध्यापन होता था, जो इसे एक बहुआयामी और समग्र शिक्षा केंद्र बनाता था।

प्रवेश पाने के लिए 20% से 30% ही छात्र परीक्षा में सफल होते थे 

नालंदा विश्वविद्यालय अपनी प्रतिष्ठा और शिक्षा की उच्च गुणवत्ता के कारण दूर-दूर से छात्रों को आकर्षित करता था। यहां विद्यार्जन की लालसा से प्रेरित होकर विदेशी छात्र भी आते थे, जिससे इसकी ख्याति व्यापक रूप से फैल गई थी। विश्वविद्यालय में प्रवेश पाना अत्यंत दुर्लभ और चुनौतीपूर्ण था। प्रवेश के लिए कठोर प्रवेश परीक्षा आयोजित की जाती थी, जिसमें अत्यंत कठिन प्रश्न पूछे जाते थे। इस परीक्षा की कठिनाई का स्तर इतना ऊँचा था कि केवल 20% से 30% ही विद्यार्थी इसमें सफल हो पाते थे और उन्हें ही प्रवेश का अवसर मिलता था। नालंदा में शिक्षा पूरी तरह नि:शुल्क थी, और छात्रों के लिए आवास और भोजन की सुविधाएं भी उपलब्ध थीं, जैसे कि विश्वविद्यालय के आचार्यों के लिए थी।

nalanda university के आचार्यों की ख्याति दूर-दूर तक थी फैली हुई 

नालंदा विश्वविद्यालय ने अपनी स्थापना से लेकर लंबे समय तक अनेक ऋषीतुल्य आचार्यों की एक महत्वपूर्ण परंपरा का निर्माण किया था। यहाँ के प्रमुख कुलपतियों में धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमती, स्थिरमती, प्रभामित्र, ध्यानचंद्र और शीलचंद्र जैसी महान विभूतियों के नाम गौरव के साथ आते हैं। इन प्रमुखों की देखरेख में, नालंदा विश्वविद्यालय ने नागार्जुन, आर्यदेव, वसुबंधू, अंग, शीलभद्र, शांतरक्षित, जिनमित्र और ज्ञानचंद्र जैसे अद्वितीय विद्वानों को जन्म दिया। ये आचार्य केवल शिक्षाविद ही नहीं थे, बल्कि उन्होंने विभिन्न विद्याओं में उत्कृष्टता हासिल की थी। उन्होंने दर्शनशास्त्र, न्यायशास्त्र और तंत्रविद्या जैसे जटिल विषयों पर महत्वपूर्ण ग्रंथ भी रचे। इनके विशुद्ध चारित्र्य और अप्रतिम विद्वता के कारण, इन आचार्यों की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी, और नालंदा विश्वविद्यालय का नाम सदियों तक गर्व से लिया गया।

अंतरराष्ट्रीय विद्यार्जन का केंद्र और उदारता का प्रतीक था नालंदा यूनिवर्सिटी

नालंदा यूनिवर्सिटी प्राचीन काल में ज्ञान का एक प्रमुख केंद्र रहा था, इस विश्वविद्यालय में उस समय पर चीन, मंगोलिया, थाईलंड, श्रीलंका, बर्मा, और कोरिया जैसे देशों से विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करने आते थे। यह प्रतिष्ठान काफी अद्वितीय था क्योंकि यहाँ शिक्षा उच्च स्तर की और पूर्णतया नि:शुल्क थी। आप जानकर दंग रह जाएंगे कि, इस विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले सभी विद्यार्थियों के लिए भोजन और वस्त्र विश्वविद्यालय की तरफ़ से पूर्णतया मुफ्त में दिए दिए जाते थे। इस विद्यापीठ के संचालन के लिए धनोपार्जन कई सारे गाँव से आता था, जिससे यह सुनिश्चित होता था कि शिक्षा की प्रक्रिया बिना किसी रुकावट के चलती रहे। नालंदा के पास 200 समृद्ध गांवों का समर्थन था, जिसमें से 50% संपत्ति अकेले सम्राट हर्षवर्धन द्वारा दान की गई थी। यह बौद्ध जगत के और भारत के लिए गर्व का विषय था।

आपको बता दें कि, तथागत बुद्ध के समय में, नालंदा एक संपन्न नगर था। बौद्ध अनुयायियों की यहाँ बड़ी संख्या थी। प्रावारिक नामक एक धनी व्यक्ति ने तथागत को प्रावारिक भवन और आम्रवन दान किया था, जहाँ बुद्ध अक्सर निवास करते थे। ऐसा भी कहा जाता है कि महावीर जैन और तथागत बुद्ध एक बार एक साथ नालंदा में ठहरे थे, जिससे इस स्थान की ऐतिहासिक और धार्मिक महत्ता और बढ़ जाती है।

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ह्यूएन त्सांग और नालंदा

आपको बता दें कि, बौद्ध धर्मग्रंथों का अध्ययन और धार्मिक स्थलों का अन्वेषण ह्यूएन त्सांग की भारत यात्रा का मुख्य उद्देश्य था। सातवीं शताब्दी में, ह्यूएन त्सांग नालंदा विश्वविद्यालय आए और यहाँ उन्होंने संस्कृत और बौद्ध दर्शन का गहन अध्ययन किया। अपनी शिक्षा के दौरान, उन्होंने नालंदा में ही अध्यापन भी किया, जिससे उन्होंने विश्वविद्यालय की शिक्षण परंपराओं को और भी समृद्ध किया।

सम्राट हर्षवर्धन के शासनकाल में नालंदा का वैभव अपने चरम पर था। उस समय नालंदा विद्यापीठ में 10,000 से अधिक छात्र शिक्षा प्राप्त कर रहे थे और 1,500 से अधिक शिक्षक उन्हें मार्गदर्शन प्रदान कर रहे थे। शिलभद्र, जो उस समय नालंदा के कुलपति थे, उन्होंने विश्वविद्यालय को अद्वितीय ज्ञान और नेतृत्व से नवाजा।

ह्यूएन त्सांग ने नालंदा के अपने अनुभवों और यहाँ की व्यवस्था का विस्तृत वर्णन अपने भ्रमण ग्रंथ में किया है। उनके अनुसार, नालंदा में प्रतिदिन विद्वानों द्वारा 100 से अधिक भाषण और संवाद आयोजित किए जाते थे, जिनमें गहन वाद-विवाद और चर्चा शामिल होती थी। विश्वविद्यालय में छात्रों के निवास और अध्ययन के लिए 3,000 से 4,000 कमरे थे, जिनमें से 1,000 बड़े कक्ष विशेष रूप से अध्ययन और कक्षाओं के लिए समर्पित थे।

आपको बता दूं कि, ह्यूएन त्सांग की नालंदा यात्रा न केवल बौद्ध शिक्षा के प्रति उनकी लगन को दर्शाती है, बल्कि यह भी प्रमाणित करती है कि नालंदा विश्वविद्यालय कैसे प्राचीन काल में शिक्षा और संस्कृति का एक प्रमुख केंद्र था।

नालंदा विद्यापीठ भारतीय शिक्षा का गौरवशाली केंद्र था 

कहा जाता है कि, सम्राट हर्षवर्धन के शासन काल में, नालंदा विश्वविद्यालय एक अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के रूप में उच्च स्तरीय शिक्षा का केंद्र बना था। यहाँ पर शिक्षा हासिल करने के लिए देश-विदेश से हजारों विद्यार्थी आते थे। नालंदा विश्वविद्यालय आशिया महाद्वीप में प्रसिद्ध बौद्ध विद्यापीठ के रूप में विख्यात था और इसकी विशेषता उसके व्यापक विषय स्पेक्ट्रम और विद्यार्थियों के बीच विद्यापीठ की विविधता में थी।

हर्षवर्धन ने नालंदा विद्यापीठ के योग्यताओं के लिए विशेष रूप से प्रशंसा की और इसे विशेष रूप से समर्थन भी प्रदान किया। उनके शासनकाल में नालंदा विद्यापीठ ने बौद्ध धर्म, संस्कृति और विज्ञान में विशेष योगदान दिया, जिससे इसे एक गौरवशाली शिक्षा संस्थान के रूप में जाना गया।

तीन महीने तक जलता रहा नालंदा विश्वविद्यालय

लगभग 800 सालों तक अस्तित्व में रहने के बाद इस विश्वविद्यालय को भूखे-नंगे,असभ्य,आदमखोरों की एक दीन नजर लग गयी। कहा जाता है कि, इ.स. १२०० के दरम्यान नालंदा विश्वविद्यालय को बख्तियार खिलजी के अधीन तुर्क मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा बर्बाद कर दिया गया। मुहमंद बिन बखत्यार खिलजी का मानना था कि, “ज्ञान सिर्फ कुराण मे है, बाकी कही नही।” इसी गलत सोच के चलते उसने नालंदा विश्वविद्यालय हमला किया।

फारसी इतिहासकार मिन्हाज-ए-सिराज ने अपनी किताब तबक़त-ए-नासिरी में लिखा है कि यूनिवर्सिटी को बर्बाद करते वक्त 1000 भिक्षुओं को जिंदा जलाया गया और 1000 भिक्षुओं के सर कलम कर दिए गए । पुस्तकालय को जला दिया गया, तत्कालीन इतिहासकारों ने इस घटना के बारे में लिखा है कि, हमलावरों के द्वारा आग लगाने के बाद पुस्तकालय में किताबें लगभग 6 महीने तक जलती रहीं । और जलते हुए पांडुलिपियों के धुएं ने एक विशाल पर्वत का रूप ले लिया था। बख्तियार खिलजी द्वारा आग लगाने के चलते ज्ञान का खजाना पूरी तरह से जलकर खाक हो गया। आज हम उसके अवशेष तक देखने को नहीं मिलते हैं।

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Nalanda University (photo quora/social media)

आम जनता के लिए खुला था ज्ञान का खजाना

आपको बता दें कि, नालंदा विश्वविद्यालय की महत्ता सही मायने में गुप्त वंश के राजाओं के शासन काल के दौरान प्रकाश में आई। जब भारत में पहली बार विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। इससे पूर्व में भारत में शिक्षा सिर्फ दो जगह पर मिलती थी। उच्च वर्णीय लोगों के यहां और दूसरी जाने-माने आचार्य के घर या फिर आश्रम में। परंतु यहां मिलने वाली शिक्षा सिर्फ कुछ चुनिंदा लोगों के लिए ही होती थी। आम जनता शिक्षा से वंचित थी। लेकिन बौद्ध भिक्षुओं ने शिक्षा को आम लोगों के लिए भी खुली की जिसके परीणाम स्वरूप नालंदा विश्वविद्यालय का जन्म हुआ जहा पर योग्यता के आधार पर शिक्षा सभी के लिए खुली थी और वह भी बिलकुल मुफ्त थी।

तथागत बुद्ध की 80 फीट ऊंची प्रतिमा स्थापित थी इस विद्यापीठ में

भारतीय इतिहास विश्वकोश नामक पुस्तक में लिखा हुआ है कि गुप्त सम्राट बालादित्य ने सन् 470 ई. में। नालन्दा में एक सुन्दर विहार बनवाया था और उसमे भगवान गौतम बुद्ध की ८० फूट ऊंची तांबे की एक सुंदर मूर्ती स्थापित की थी।

नालन्दा विश्वविद्यालय के पुरातात्विक साक्ष्य

आपको यह जानकर खुशी महसूस होगी कि, नालंदा विश्वविद्यालय का पुरातात्विक साक्ष्य कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल के दौरान मिले सिक्के हैं। जो इसके अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। युवान च्वांग के अनुसार गुप्त वंश के पाँच राजाओं ने क्रमिक रूप से पाँच विहार नालन्दा विश्वविद्यालय में बनवाये थे। इसके अलावा बालादित्य ने भी एक विहार विश्वविद्यालय के परिसर में बनवाया था और छठा विहार भारत के शासक ने बनवाया था। यहाँ मिले नरसिंहगुप्त, कुमारगुप्त (द्वितीय), बुद्धगुप्त और विष्णुगुप्त के शिलालेखों से गुप्त शासकों की नालंदा विश्वविद्यालय के प्रति अपनी जिम्मेदारी स्पष्ट होती है।

बौद्ध जगत में नालन्दा विश्वविद्यालय की अंतरराष्ट्रीय ख्याति इस परिसर मे मीले ताम्रपत्र अभिलेख से स्पष्ट होती है। इन अभिलेखों पर मिले जानकारी के आधार पर इस विद्यापीठ की अंतर्राष्ट्रीय ख्याति कैसी रही होगी इसकी कल्पना संभव है। अभिलेखों और अन्य पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर यहां रहने वाले विद्वानों का ज्ञान उनके कड़ी मेहनत और अनुशासित आचरण आदि की कल्पना की जा सकती हैं। ऐसा माना जाता है कि, पाल राजा के शासन काल में नालन्दा विश्वविद्यालय अपने चरम पर पहुँच गया था। नागार्जुन, आर्यदेव, असंग, वसुबन्धु आदि यहाँ के प्रमुख विद्वान थे।

अलेक्झेण्डर कनींघम ने फिर एक इसकी महत्ता दुनियां के सामने लाई

जैसा की हमने जाना कि, नालंदा विश्वविद्यालय मुहम्मद बख्तियार खिलजी के हमले के कारण पूरी तरह से नष्ट हो गया था। इसी के पश्चात में बाद में एक धर्मस्वामी, तिब्बती यात्री जिन्होने 1235-36 में नालंदा विश्वविद्यालय का दौरा किया था, ने नालंदा विश्वविद्यालय की दुलर्भ स्थिति का वर्णन किया। उनके मुताबिक़, विश्वविद्यालय की अधिकतर इमारतें नष्ट हो चुकी थी और केवल प्रधान पंडित राहुलश्रीभद्र और उनके 70 शिष्य ही इस हमले बचे थे। इस प्रकार नालन्दा विश्वविद्यालय का महत्व पूर्णतया लुप्त (कम) हो गया था। ऐसा भी कहा जाता है कि, बाद में नालन्दा विश्वविद्यालय का नाम भी लोगों द्वारा भुला दिया गया था। लेकिन अलेक्जेंडर कनिंघम ने आधुनिक विश्व के सामने फिर से इस विश्वविद्यालय की पहचान प्राचीन विश्व के एक महान विश्वविद्यालय के रूप में करायी।

जानकारी के आधार पर सबसे पहले नालंदा विश्वविद्यालय के खंडहरों को बुकॅनॉन हॅमिल्टन (Buchanon Hamilton) ने देखा था। जब वह भारत इ.स.१८११-१२ में यहां आया था। लेकिन इस विश्वविद्यालय सही मायने में पहचान इसके 50 साल बाद अलेक्झण्डर कनींघम ने की। इसने भी चिनी यात्रियों के वर्णन के आधार पर और वहा पर मौजुद अभिलेखों के आधार इसकी पहचान की और पुरी दुनियां को बताया कि, भारत में दुनियां की सबसे श्रेष्ठ शिक्षा संस्था थी जिसे आक्रमणकारियों ने नष्ट किया है।

सन १९१५: नालंदा का पुरातत्विक खोज

सन १९१५ में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने नालंदा के उत्खनन कार्य की शुरुआत की। इस उत्खनन अभियान ने नालंदा को विश्वविद्यालय के रूप में पुनः जगाया, जिससे कि भारत की गहरी ज्ञान परंपरा और महान केंद्रों की महत्वपूर्णता को फिर से स्थापित किया गया। इस प्रयास ने भारतीय इतिहास और संस्कृति के प्रति विश्वास को मजबूती से दिखाया और विश्व भर में इस धरोहर की महत्वपूर्णता को साबित किया।

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नव-नालंदा महाविहार: एक पुनर्जीवित धरोहर

नालंदा विश्वविद्यालय सिर्फ ज्ञान का ही नहीं बल्कि अन्य कलाओं का भी एक उत्कृष्ट स्थान था। आज के युग में इस विश्वविद्यालय के वैभव को फिर से जीवित करने के लिए साल 1951 में”नव-नालंदा महाविहार”  की स्थापना की गई। इस ‘नव-नालंदा महाविहार’ में महान विद्वान आणि भिक्खू जगदीश काश्यप का योगदान है। इन्होंने इस विश्वविद्यालय के वैभव को पुनः जीवित करने के लिए जीवन भर प्रयास किए। प्राचीन काल की तरह ही आज भी थाईलंड, बर्मा, श्रीलंका, जपान आदि दुनियां भर से बौद्ध भिक्षु यहां आते हैं और ज्ञान अर्जित करने का प्रयास करते हैं।

प्राचीन साहित्यिक साक्ष्यों के अनुसार, नालंदा की प्राचीनता मौर्य काल के दौरान अशोक के साम्राज्य से मिलती है। हालाँकि, इस स्थान की समृद्धि ई.पू. पाँचवीं से छठी शताब्दी ईस्वी तक जारी रही और विश्वविद्यालय को हर्षवर्द्धन और पाल राजाओं (आठवीं से बारहवीं शताब्दी) से उदार संरक्षण प्राप्त हुआ। कॅनिंगॅहम ने इस जगह की खोज 1871 में की। परंतु प्रत्यक्ष इस जगह का उत्खनन 1956 में शुरु हुआ , जो आगे कई सालो तक चलता रहा। आपको बता दें कि, यहा पर किए गए खोज अभियान में हमें कई सारे मंदिरों के अवशेष, विहार, स्तूप, मुद्रा और ब्रांज की मूर्तियां मिली। इसके अलावा यहां पर उत्खनन में कई विहार और कई सीढ़ियों वाले हॉल, केंद्रीय चौक और आसपास बरामदे और कई कमरे पाए गए। इन्हे देखकर मन विचलित होता है कि, इतना भव्य विश्वविद्यालय सिर्फ द्वेष के चलते नष्ट किया गया। उत्खनन से स्पष्ट होता है कि, इमारत के खंभों और दीवारों को कलात्मक चित्रों और नक्काशी से सजाया गया था। इसके यहां पढ़ने वाले छात्रों का जीवन कैसा रहा होगा इसकी कल्पना हमे आती है। क्युकी इस पर प्रकाश डालने के लिए पर्याप्त सबूत भी यहा से बरामद हुए हैं। उत्खनन से यह बात पता चली है कि, यहां बनी इमारतें आग की लपेटो में जली है। इस स्थान से एक ताम्रपत्र बरामद हुआ जिससे यह पता चलता है कि, सुमात्रा के राजा के आग्रह पर राजा देवपाल ने कई गांवों को विश्वविद्यालय को भेंट किया हुआ था। नालन्दा विहार के अनेक निजी एवं वर्ग सिक्के भी मिले हैं। अनेक स्तूप भी हाथ लगे हैं, जिनमें मठ और धार्मिक ग्रंथ भी शामिल हैं।

नालंदा विद्यापीठ भारतीय शिक्षा का एक प्रमुख संस्थान था, जो बिहार राज्य के राजगिर नगर से लगभग ११-२७ किलोमीटर दूर स्थित था। इसकी स्थापना इ.स. पांचवे शतक के प्रारंभिक दशकों में हुई थी। इसका संस्थापन बौद्ध आचार्य नागार्जुन के शिष्य आर्यदेव के द्वारा किया गया था। उत्खनन से पाया गया मुद्रा “श्री नालंदा महाविहार-आर्य भिक्खू संघस्य” इसकी प्रमुख पहचान है, और इसके दोनों बाजुओं पर सारनाथ का धर्मचक्र आकृति है।

नालंदा विश्वविद्यालय का क्षेत्रफल

नालंदा विद्यापीठ का क्षेत्रफल लगभग दो किलोमीटर लंबा और एक पाऊं किलोमीटर चौड़ा था, जिसमें यह विद्यापीठ स्थित था। इस क्षेत्र में विद्यापीठ की महान इमारतें और आवासीय भवन थे। इस प्रकार, रत्नसागर, रत्नोदय और रत्नरंजक इस प्रकार के ग्रंथालय के लिए भी इमारतें थीं, जिन्हें धर्मगंग कहा जाता था, साथ ही ४,००० और १,००० खोल्यां रहते थे और १,०००० छात्र और १,५०० शिक्षक थे और प्रतिदिन दीन भर में व्याख्यान होते थे। यहां रहने वालों को निःशुल्क रहना, भोजन, कपड़े, औषधि प्राप्त करना और शिक्षा लेना इत्यादि सब मुफ्त मिलता था। इस सब का खर्च १०० खेड़ी प्राप्तियों और अन्य दानगीरी के द्वारा चलता था।

नालंदा विश्वविद्यालय: भारतीय शिक्षा की महान धारा थी 

नालंदा विद्यापीठ एक ऐसा स्थान था जहां चारित्र्यसंपन्न और बुद्धिवान शिक्षक, अभ्यासू और मेहनती छात्र, कुशल प्रशासन और शासकों का लगातार संरक्षण था। इसी कारण नालंदा विद्यापीठ ने भारतीय अध्ययन और अध्यापन की श्रेष्ठ परंपराओं को बनाए रखा और समृद्ध किया, जिससे इस विद्यापीठ की हिस्सेदारी बहुत ही मोटी और महत्वपूर्ण हो गई। यहां शिक्षा के क्षेत्र में बहुतायत विकास हुआ और विद्यार्थियों को अनूठा अनुभव प्राप्त हुआ।

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ह्यू-एन-त्सांग ने अपने यात्रा वृतांत में विश्वविद्यालय का वर्णन इस प्रकार किया है

ह्यू-एन-त्सांग ने अपने यात्रा वृतांत में विश्वविद्यालय के बारे में बताया कि, नालंदा विश्वविद्यालय बहुत ही अनोखी रचना है। यहां पर बहुत ही सोच समझ कर भव्य इमारतों का निर्माण किया गया है। उन्हे देखने पर ऐसा प्रतीत होता है जैसे ये इमारतें आकाश को चीर रही हैं। विहार भी बड़े भव्य बनाए हुए हैं। और उनके आसपास निलवर्ण जलप्रवाह बहता हुआ बहुत ही सुन्दर प्रतीत होता है। इसके अलावा विहार में एक कर्णिकार वृक्ष था जो चमकीले सुनहरे फूलों से लदा हुआ था। बाहर भिक्षुओं का निवास स्थान आम के वृक्षों की घनी छाया से ढका हुआ था। संघाराम में आठ बड़े भव्य चौराहे थे। इसके अलावा विभिन्न चौकों पर भिक्षु के निवास के लिए कई ऐसी चार मंजिला इमारतें बनाई गई थीं। संघाराम में रहने वाले और बाहर से आने वाले भिक्षुओं की संख्या हमेशा 10,000 तक होती थी और ये सभी भिक्षु महायानी संप्रदाय के थे। संघराम में चिकित्सा ग्रंथ, गृह अर्थशास्त्र और गणित आदि हैं। यहां कई विषयों की पढ़ाई भी होती हैं। संघराम में 100 मंच हैं और शिष्य अपने गुरु के प्रवचनों को बड़ी श्रद्धा से सुनते हैं। ह्वेन-त्सांग के यात्रा वृतांत के अनुसार, नालंदा विश्वविद्यालय में छह संघाराम थे, जिनमें से एक निष्क्रिय पड़ा हुआ था। जब की बाकी के पांच अच्छे स्थिती में है। इनमें से एक को मगध के राजा महेंद्रदित्य कुमारगुप्त ने बनाया हुआ है। कहा जाता है कि, यहां प्रतिदिन चालीस श्रमणों को भोजन कराया जाता था। महेंद्रादित्य कुमारगुप्त के बाद उनके पुत्र बुद्धगुप्त सिंहासन पर बैठे और उन्होंने भी अपने पिता द्वारा निर्मित संघाराम के दक्षिण में एक और संघाराम बनवाया। फिर बुद्धगुप्त के पुत्र तथागत गुप्ता ने पूर्व में तीसरा संघाराम बनवाया, जिसके बाद नरसिंहगुप्त (बालादित्य) सिंहासन पर बैठे और उत्तर-पूर्व दिशा में चौथा संघाराम बनवाया।

नालंदा विश्वविद्यालय मे बालदित्य का शानदार प्रयास

नालंदा विद्यापीठ में बालदित्य ने एक महत्वपूर्ण प्रयास किया, जिसमें चवथा संघाराम बांधने के बाद एक विशाल समारंभ का आयोजन किया। इस समारंभ में वे दूर-दूर से आए भिक्खूओं को आमंत्रित किया करता और उन्हें समारंभ में भाग लेने के लिए प्रेरित किया करता था। बाद में बालदित्य ने चिवर परीधान किया और श्रामण बन गए। उनके पुत्र वज्रादित्य ने सिंहासन पर आरूढ़ होने के बाद पश्चिम और उत्तर की दिशाओं में संघाराम बांधे। अंत में महेन्द्रादित्य कुमार गुप्त ने उनके द्वारा बांधे गए संघाराम को पश्चिमी और दक्षिणी दिशाओं में आगे बढ़ाया। इस प्रकार, नालंदा विद्यापीठ में एकूण छह संघाराम थे, जो उसके सामाजिक और शैक्षिक विकास को प्रकाश में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। इस विद्यापीठ में ८० सभागृह थे और सभी विद्यापीठ परिसर में एक महान प्रांगण और संघाराम के केंद्रस्थान में विद्यापीठ स्थित थे।

ह्वेन-त्सांग के यात्रा वृतांत के अनुसार संघाराम और संघ के आसपास कई पवित्र स्थान थे

ह्वेन-त्सांग के बारे में एक और जानकारी यह मिलती है कि,  जब ह्वे-एन-त्सांग नालंदा विश्वविद्यालय गए, तो ह्वे-एन-त्सांग का नालंदा के लोगों ने बड़े सम्मान के साथ स्वागत किया था। कहा जाता है कि, ह्वे-एन-त्सांग के स्वागत के लिए 200 भिक्षु और 1000 बौद्ध लोग (जनता) बैनर, पत्रक, इत्र और फूल आदि के साथ रास्ते पर खड़े थे और सभी लोग जुलूस लेकर उनके स्वागत के लिए नगर से बाहर आये थे।

स्वागत समारंभ खत्म होने के बाद ह्वे-एन-त्सांग को और उसके साथ आए साथियों को बैठने के लिए आसन दिए और उनकी हालचाल ली गई। जिसके बाद उन्हे विश्वविद्यालय के कुलपती ने यहां आने का कारण पूछा। जिसके जवाब में ह्वे-एन-त्सांग ने बताया कि, वे और उनके साथी यहां पर वैज्ञानिकता का अध्ययन करने आये है। यह सुनने के बाद विश्वविद्यालय के कुलपती को खुशी के आंसू निकलते हैं। इसके बाद ह्वे-एन-त्सांग कहता है कि,

“जीस तरह मेरा आगमन तुम्हारे स्वप्न के समान हुआ। इसलिए, हे कृपानिधे, आप मुझे  धर्म ज्ञान दीजिए और आपकी सेवा करने का अवसर दें।

उपरोक्त सभी चर्चाएँ समाप्त होने के बाद, ह्यू-एन-त्सांग को बालादित्य साम्राज्य के विहार में बुद्धभद्र के साथ रहने की उनकी व्यवस्था की गई। जिस विहार में ह्वे-एन-त्सांग रहता था वह चार मंजिला इमारत थी। सात दिनों तक इस विहार में रहने के बाद, ह्यू-एन-त्सांग बोधिसत्व धर्मपाल के एन-त्सांग नालंदा के बगल में रहने चले गए, ऐसा माना जाता है।

नालंदा विद्यापीठ में इत्सिंग का चीनी प्रवास

इत्सिंग नामक चीनी प्रवासी ने सातव्या शतक में भारत आकर बौद्ध धर्म की शिक्षा प्राप्त की थी। उन्होंने नालंदा विद्यापीठ से भी अपनी शिक्षा प्राप्त की थी। इत्सिंग के साथी शांतरक्षित भी एक विद्वान थे, जिन्होंने ‘रत्नोदधि’ ग्रंथ संग्रहालय से ४०० संस्कृत ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद कर अपने देश चीन ले गया। इसी प्रकार, नालंदा विद्यापीठ में अनेक ‘हस्तलिखित ग्रंथ’ भी प्राप्त हुए थे, जिन्हें कैंब्रिज और लंदन के ग्रंथ संग्रहालयों में संरक्षित किया गया है। इस यात्रा ने नालंदा विद्यापीठ के महत्व और गौरव को और भी प्रकाशित किया।

इत्सिंग ने अपने यात्रा वृतांत में कहा है कि “नालंदा में वाद-विवाद या शास्त्रार्थ शिक्षा का मुख्य साधन था”

नालन्दा विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए आने वाले छात्रों को तीन श्रेणियों में बाँटा जाता था

नालंदा विद्यापीठ के अध्ययन केंद्र में आने वाले छात्र तीन अलग-अलग प्रकार के छात्र हुआ करते थे। पहले प्रकार के छात्र थे भिक्खू, जिन्हें बौद्ध धर्मग्रंथों का अध्ययन कराया जाता था और उन्हें तत्वज्ञान की शिक्षा दी जाती थी। दूसरे प्रकार के विद्यार्थी थे ब्रह्मचारी, जो सभी सांसारिक वस्तुओं का त्याग कर धार्मिक और साहित्यिक अध्ययन करते थे। तीसरे प्रकार के छात्र थे मानवक, जिन्हें बौद्ध धर्म के ग्रंथों की शिक्षा दी जाती थी।

इसके बावजूद, विद्यार्थियों को सक्ती नहीं होती ब्रह्मचारी और मानवक दोनों प्रकार के छात्रों को केवल विहार में रहने की अनुमति थी, लेकिन वे अपना खर्च स्वयं उठाते थे। ऐसे विद्यार्थियों को शिक्षा भी मिलती थी, लेकिन उन्हें विहार में शिष्टता का पालन नहीं करना पड़ता था। विहार में रहने वाले विद्यार्थियों को विद्वानों की सभा में अपने ज्ञान और आविष्कार की शक्ति को सिद्ध करके दिखाना पड़ता था।

संदर्भ: प्राचीन भारतातील प्रमुख बौद्ध विद्यापीठे

Dr. Manik Gajbhiye

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